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श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म की गंभीर विवेचना की है। विनोबा भावे कहते हैं कि कर्म के साथ जब विकर्म का जोड़ मिल जाता है तो शक्ति स्फोट होता है और उसमें अकर्म का निर्माण । ४ अध्याय के १६-१७ श्लोक इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। आचार्यों ने कर्म, अकर्म और विकर्म का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। यहां हम स्वामी आत्मानंद का मत ही संक्षेप में देते हैं। उनके अनुसार समय पर किया गया कर्म कर्म है और समय बीतने पर किया गया अकर्म । विकर्म का विशिष्ट अर्थ है " आभ्यंतरिक क्रिया ।” कर्म और विकर्म का योग होना चाहिए तभी कर्म अकर्म बनता है। गीता में अकर्म का अर्थ है, जिससे कर्म का दोष निकल जाए - इसी को "नैष्कर्म्य" भी कहते हैं। अकर्म का अर्थ निठल्लापन नहीं है (गीतातत्व चिन्तन दूसरा भाग पृ. २२३ - २२५) । बाल गंगाधर तिलक ने कर्म, अकर्म और विकर्म पर भिन्न दृष्टि से विचार किया है। वे सात्विक कर्म को ही अकर्म गिनते हैं, क्योंकि इसमें कर्म का विपाक नष्ट हो जाता है। तामस कर्म को वे विकर्म मानते हैं, क्योंकि ये कर्म मोह और अज्ञान से अनुस्यूत हैं। जो कर्म सात्विक नहीं हैं - वे राजस कर्म हैं। राजस कर्म को केवल कर्म भी कह सकते हैं। गीता में कर्म, अकर्म और विकर्म की दार्शनिकों ने अपने मतानुसार व्याख्या की है। स्वामी चिन्मयानन्द ने भी इन तीन शब्दों की विस्तृत विवृत्ति दी । १५ वें अध्याय ( २३-२४-२५ ) श्लोक में श्री कृष्ण ने सात्विक, राजसी और तामसी कर्मों का भेद निरूपित किया। राग द्वेष से हीन निरभिमान शास्त्रोक्त फलासक्ति रहित कर्म सात्विक है और परिश्रम से भोगेच्छा द्वारा अहंकार से किया गया राजसी एवं अज्ञान, हिंसा, परिणामहीन किया गया कर्म तामसी है। इस प्रकार गीता के कर्मयोग पर विद्वानों ने प्रभूत विचार किया है। गीता के १८वें अध्याय (१४-१५) में कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण एवं विभिन्न चेष्टाओं के साथ-साथ पांचवा हेतु दैव है । दैव का तात्पर्य आचार्यों ने शुभाशुभ कर्मों से किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि मनुष्य मन, वाणी व शरीर से जो कुछ कर्म करता है, उसके ये पांचों कारण हैं। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है । यहीं पर स्वाभाविक एवं सहज कर्म का भी विश्लेषण है।
श्री शक्ति गीता में भी कर्मतत्व पर विस्तृत विचार किया गया है। इस गीता ने कर्मयोग के दो प्रकार बताए हैं - प्रवृत्ति फल देने वाला और निवृत्ति फलदायक । एक सकामासक्त है और दूसरा निष्काम रूप- यह परमानन्द भाव प्रकाशक है। इस प्रकार कर्म योग से अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। निष्काम कर्म योग वासना रहित, निर्विकार एवं विकल्प हीन है, परन्तु सकामासक्त कर्मयोग भी मान्य है। कृष्ण और शुक्ल गति प्रवृत्ति मूलक है और सहजगति शान्त और निष्काम ( श्री शक्ति गीता - श्री भारत धर्म महामण्डल- काशी पू. ४०-४३) । इस प्रकार कर्मों की भावना के अनुसार उनके आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दृष्टि से कर्मों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। आधिभौतिक कर्म लोकमंगलकारी व सार्वनैतिक शुभ
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