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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन
सम्मत्तदंसी न करेई पाव।-आचारांग सूत्र १.३.२ सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी कषाय से प्रेरित पाप नहीं करता और न उसकी आन्तरिक रुचि ही पापाचरण की ओर होती है। वह अन्तर में निलंप रहता है। यही उसका निर्वेद भाव है। अनुकम्पा-दुःखी प्राणियों के दुःख का अनुभव करना एवं उसे दूर करने अनुकम्पा है। सम्यग्दृष्टि का चित्त इतना सात्त्विक और कोमल होता है कि वह किसी दुःखी को देखकर आंखें मूंद नहीं सकता। वह उसे दूर करने का प्रबल प्रयास करता है। 'मित्ती मे सव्वभूएसु' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का उदात्त स्वर उसके अन्तर्मानस में झंकृत होता है। वह किसी भी प्राणी को कष्ट में देखकर आकुल-व्याकुल हो जाता है और उसके कष्ट के निवारण करने के लिए पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है। जिसके हृदय में अनुकम्पा की भावना अठखेलियां करती हैं-वह संकटग्रस्त प्राणियों के संकट को दूर करने का प्रयास करता है, वही अनुकम्पा है। आस्तिक्य-सम्यग्दर्शन का पांचवां लक्षण आस्तिक्य है। आत्मा आदि परोक्ष तत्त्वों को जिन-वचनों के आधार पर स्वीकार करना आस्तिक्य हैं। आस्तिक व नास्तिक शब्दों में प्रयोग के अर्थ के सम्बन्ध के दार्शनिक चिन्तकों में मतभेद रहा है। संस्कृत-व्याकरण के प्रौढ़ आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी ग्रन्थ में ‘अस्ति-नास्ति-दिष्टं मति:' लिखा है। भट्टोजिदीक्षित ने सिद्धान्त कौमुदी में इसका अर्थ किया है-'अस्ति परलोक इत्येव मतिर्यस्य स आस्तिक: नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिकः।' जो निश्चित रूप से परलोक, पुनर्जन्म स्वीकार करता है वह आस्तिक है और जो उसे स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है। 'अस्ति' शब्द सत्ता का वाचक है और 'नास्ति' शब्द निषेध वाचक है। जो पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म और आत्मा के नित्यत्व में विश्वास करता है, वह आस्तिक है। जो केवल वर्तमान दृष्टि में ही केन्द्रित है, वह नास्तिक है।
सम्यग्दृष्टि आत्मा में आस्तिकता का गहरा भाव होता है। वह केवल वर्तमान दृष्टि पर ही केन्द्रित नहीं होता, अपितु त्रैकालिक अखण्ड सत्ता का अनुभव करता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के साथ ये पांच लक्षण स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं।
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आत्म-दर्शन-सम्यग्दर्शन | . सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर आत्मा को पूर्व दृष्ट पदार्थ नूतन स्वरूप में दृष्टिगोचर |
होने लगते हैं। | . बहिरात्मा पर-रूप को ही स्व-रूप मानता है। • बहिरात्मा देह का हा आत्मा समझता है। • श्रद्धा व विश्वास के बिना जीवन का विकास नहीं होता।
-उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म.सा.
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