Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 445
________________ ४२८ जिनवाणी-विशेषाङ्क निर्वेद - वैराग्यभाव को प्राप्त होता है। फिर समस्त विषयों से विरक्त होता हुआ वह आरम्भ का परित्याग करता है । आरम्भ-परित्याग करता हुआ व्यक्ति संसारमार्ग का विच्छेद कर देता है और सिद्धि मार्ग को ग्रहण कर लेता है । (१४) धम्मसद्धाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ अगारधम्मं च णं चयइ । अणगारे णं जीवे सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेझ, अव्वाबाहं च सुहं निव्वतेइ । - उत्तरा २९.४ भगवन् ! धर्मश्रद्धा से जीव को क्या उपलब्धि होती है ? I धर्मश्रद्धा से साता - सुखों (सातावेदनीयजन्य विषय - सुखों) में आसक्ति से जीव विरक्त हो जाता है और आगारधर्म (गृहस्थ सम्बन्धी प्रवृत्ति) का त्याग कर देता है फिर अनगार होकर जीव छेदन-भेदन तथा संयोग आदि (विविध) शारीरिक और मानसिक दुःखों का विच्छेद कर डालता है और अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है 1 (१५) आलोयणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? आलोयणा णं माया-नियाण-मिच्छादंसण सल्लाणं मोक्खमग्गविग्धाणं अनंतसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ | उज्जुभावं च जणयइ। उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेय-नपुंसगवेयं च न बंधइ । पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ । - उत्तरा २९.६ भगवन् ! आलोचना से जीव को क्या लाभ प्राप्त होता है ? आलोचना से जीव मोक्षमार्ग में विघ्न डालने वाले अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, माया, निदान और मिथ्यादर्शन शल्यों को निकाल फेंकता है और ऋजुभाव को प्राप्त होता है । ऋजुभाव को प्राप्त जीव मायारहित होता है, अतः वह स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का बंध नहीं करता तथा पूर्व बद्ध की निर्जरा करता है 1 (१६) जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण । अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित संसारी । - उत्तरा ३६.२६० जो जीव जिनवचन में अनुरक्त हैं, जिनवचन का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल एवं असंक्लिष्ट होकर परिमित संसार वाले होते हैं । " (१७) सद्धा परमदुल्लहा । -उत्तरा ३.९ श्रद्धा परम दुर्लभ है। (१८) जं सम्मति पासहा तं मोणां ति पासहा । जं मोणंति पासहा तं सम्मति पासहा ॥ - आचारांग १.५.३ सम्यक्त्व है उसे मुनिधर्म के रूप में देखो और जो मुनिधर्म है उसे सम्यक्त्व के रूप में देखो । (१९) सम्मत्तदंसी न करेति पावं । आचारांग, १.३.२ सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता । (२०) चिच्चा सव्वविसुत्तियं फासे समियदंसणे । - आचारांग १.६.२ शंका को छोडकर परीषहों को सहन करके सम्यग्दर्शन को धारण कर । Jain Education International (२१) जाए सद्धाए णिक्खते तमेव अणुपालेज्जा विजहिता विसोत्तियं । - आचारांग १.१.३ जिस श्रद्धा से मुनि ने प्रव्रज्या ग्रहण की है उसका शंकारहित होकर यावज्जीवन पालन करे । (२२) तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । - आचारांग, १.५.५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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