Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 453
________________ संस्कृत-ग्रन्थों में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्वबन्धोर्न परो हि बन्धुः, सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः ।।१।। सम्यक्त्व रूपी रत्न से बढ़कर दूसरा कोई रत्न नहीं है । सम्यक्त्व.रूपी मित्र से बढ़कर कोई मित्र नहीं है, सम्यक्त्व रूपी बन्धु से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है और सम्यक्त्वरूपी लाभ से बढकर कोई अन्य लाभ नहीं है। नरत्वेऽपि पशूयन्ते, मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते, सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ।।२।। मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्त वाले प्राणी मनुष्य जन्म पाकर भी पशु की भांति आचरण करते हैं तथा जिन जीवों में सम्यक्त्व प्रकट हो गया है वे पशुदेह प्राप्त करके भी मनुष्य की भांति आचरण करते हैं। या देवे देवताबुद्धिगुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधी: शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥३॥ देव को देव समझना, गुरु को गुरु मानना और धर्म को धर्म स्वीकारना यह सम्यक्त्व कहा जाता है। शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥४॥ शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था इन पांच लक्षणों से युक्त ही सच्चा सम्यक्त्व कहा जाता है। .. शंका कांक्षा निन्दा परशंसा संस्तवोऽभिलाषश्च । परिहर्तव्या सद्भिः सम्यक्त्वविशोधिभिः सततम् ॥५॥ शंका, कांक्षा, निन्दा, परप्रशंसा, परमत का परिचय और उसकी अभिलाषा ये दोष सम्यक्त्व का शोधन करने वाले सत्पुरुषों के द्वारा सतत त्याज्य हैं। सम्यग्दर्शनसम्पन्न:, कर्मणा न हि बध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु, संसारं प्रतिपद्यते ॥६॥ सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) से युक्त जीव कर्म से नहीं बंधता है। किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित जीव संसार (बंधन) को प्राप्त करता है। सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य, ध्रुवं निर्वाणसंगमः । ___ मिथ्यादृशोऽस्य जीवस्य, संसारे भ्रमणं सदा ॥७॥ सम्यक्त्व से युक्त जीव को निश्चित रूप से निर्वाण की प्राप्ति होती है, किन्तु । मिथ्यादृष्टि जीव सदा संसार में भ्रमण करता है। विनैककं शून्यगणा वृथा यथा, विनार्कतेजो नयने वृथा यथा। विना सुवृष्टिं च कृषितथा यथा, बिना सुदृष्टिं विपुलं तपस्तथा ॥८॥ जैसे बिना 'एक' के शून्य-समुदाय व्यर्थ है, बिना सूर्य के प्रकाश के नेत्र बेकार हैं, बिना अच्छी बरसात के कृषि निष्फल है उसी प्रकार बिना सम्यक दृष्टि के विपुल तप भी व्यर्थ कनीनिकेव नेत्रस्य, कुसुमस्येव सौरभम् । सम्यक्त्वमुच्यते सारं, सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ॥९॥ आँख की पुतली की भांति और फूल की सुगन्धे की तरह समस्त धर्म-कार्यों का सार सम्यक्त्व है। श्लाघ्यं हि चरणज्ञानवियुक्तमपि दर्शनम् । न पुनर्ज्ञानचारित्रे, मिथ्यात्वविषदूषिते ॥१०॥ चारित्र और ज्ञान से रहित भी सम्यग्दर्शन प्रशंसनीय है, किन्तु मिथ्यात्व के विष से दृषित ज्ञान और चारित्र का होना अच्छा नहीं है। सम्यक्त्वसहिता एव, शुद्धा दानादिकाः क्रियाः । तासां प्रोक्षफलं प्रोक्तं, यदस्य सहचारिता ॥११॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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