Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 451
________________ ४३४ जिनवाणी-विशेषाङ्क मूढत्रयं मदश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति, दृग्दोषा: पंचविंशतिः ॥-ज्ञानार्णव, षष्ठसंर्ग, गाथा ८ तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन और शङ्कादि आठ दोष इस प्रकार सम्यग्दर्शन के ये २५ दोष हैं। सामान्याद्वा विशेषाद्वा सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् । सत्तारूपं परिणामि प्रदेशेषु परं चितः ।-पंचाध्यायी, दूसरा अध्याय,३८१ सम्यग्दर्शन सामान्य और विशेष दोनों प्रकार से निर्विकल्प है, सत्त्वरूप है और केवल आत्मा के प्रदेशों से परिणमन करने वाला है। सम्यक्त्वं वस्तुत: सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् । तस्मात् वक्तुं च श्रोतुं च नाधिकारी विधिक्रमात् ॥-पंचाध्यायी, गाथा ४०० वस्तुत: सम्यग्दर्शन सूक्ष्म है, वचनों का अविषय है, इसलिए कोई भी जीव विधिरूप से उसके कहने और सुनने का अधिकारी नहीं है। णगरस्स जह दुवारं मुहस्स चक्खू तरुस्स जह मूलं। तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरण वीरियतवाणं ॥-भगवती आराधना, ७३६ जिस प्रकार नगर में द्वार चेहरे पर आँख और वृक्ष में मूल (प्रमुख) होते हैं वैसे ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप (रूप आराधनाओं) में सम्यक्त्व ही प्रधान है। दसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्ठा ण सिझांति ॥-दर्शनपाहुड ३ सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट भ्रष्ट हैं। दर्शन से भ्रष्ट का निर्वाण नहीं होता है। चारित्र से भ्रष्ट सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु दर्शन से भ्रष्ट सिद्ध नहीं होते हैं। लखूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति। तेसिमणताणंता ण भवदि संसारवासद्धा ।-भगवती आराधना, ५३ जो जीव एक मुहूर्त काल तक भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं उनका संसार में वास अनन्तानन्त काल तक नहीं होता। (उनका अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल मात्र ही संसार शेष रहता है।) शुद्धात्मैवोपादेय इति श्रद्धानं सम्यक्त्वम् ।-समयसार, तात्पर्यवृत्ति ३८.७२-९ शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा श्रद्धान सम्यक्त्व है। हिंसारहिए धम्मं अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथं पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।।मोक्षपाहुड ९० हिंसादिरहित धर्म, अठारह दोष रहित देव और निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा होना सम्यक्त्व है। सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्येव ॥-दर्शनपाहुड ४ सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट पुरुष बहुविध शास्त्रों को जानते हुए भी आराधना से रहित होने के कारण संसार में ही भ्रमण करते हैं। सम्मत्तविरहिया णं सुट्ठ वि उग्गं तवं चरता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहि ॥-दर्शनपाहुड ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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