Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 449
________________ दिगम्बर ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन काऊण णमुक्कारं जिणवरउसहस्स वड्ढमाणस्स । दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्पं समासेण ।। - दर्शनपाहुड, १ जिनश्रेष्ठ (प्रथम तीर्थंकर भ) ऋषभनाथ ( तथा अन्तिम २४ वें तीर्थंकर भ.) वर्धमान को (परम श्रद्धा से) वन्दन करके मैं क्रमानुसार संक्षेप में सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहूँगा । छ दव्वाई णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्चा णिद्दिट्ठा । सद्दहणा ताण रूपं सो सद्दिट्ठी मुणेदव्वो । दर्शनपाहुड, १९ छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्व (जिनवर भगवान् ने ) कहे हैं । जो उनके यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करता है, उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । जीवादीसहहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्चयो अप्पाणं हवदि सम्मत्तं । - दर्शनपाहुड, २० जिनश्रेष्ठों ने जीव आदि (पदार्थों) के श्रद्धान को व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन कहा है; (लेकिन) निश्चय नय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है । भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं । - समयसार, १३ भूतार्थ यानी निश्चयनय से जाने गए जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष को सम्यग्दर्शन कहते हैं T हिंसारहिदे धम्मे अट्ठारह-दोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होदि सम्मत्तं || मोक्षपाहुड, ७ हिंसारहित धर्म में अट्ठारह दोषों से रहित देव में तथा निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । सम्मादिट्टी जीवो दुग्गदिहेतुं ण बंधदे कम्मं । जं बहुभवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८७ सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गति के कारण रूप कर्मों का बन्ध नहीं करता, बल्कि पहले अनेक भवों में जो अशुभ कर्म बांधे हैं उनका भी नाश कर देता है । सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभाव उवलद्धी । उवलद्धपयत्यो पुण सेयासेयं वियाणादि । -मूलाचार, १.१२ सम्यक्त्व से ज्ञान, ज्ञान से सर्व भावों की उपलब्धि होती है । फिर पदार्थों की उपलब्धि से (सम्यग्दृष्टि) श्रेय और अश्रेय को जानता है । ववहारोऽभूदत्यो भूदत्यो देसिदो हु सुद्धणओ । भूदत्यमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥ - समयसार, १.११ व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है ऐसा (ज्ञानी मुनियों ने) बताया जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, निश्चय ही वह सम्यग्दृष्टि है । उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं । समयसार, ७.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only है 1 www.jainelibrary.org

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