Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 447
________________ ४३० . जिनवाणी-विशेषाङ्क सम्यग्दृष्टि का श्रुत श्रुतज्ञान है, मिथ्यादृष्टि का श्रुत श्रुत-अज्ञान है। (३१) तिविहे दंसणे पण्णत्ते. तंजहा -सम्मइंसणे, मिच्छादंसणे, सम्मामिच्छदंसणे। -स्थानांगसूत्र, तृतीय स्थान, तृतीय उद्देशक, सूत्र ३९२ तीन प्रकार के दर्शन कहे गए हैं, यथा- सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यग्मिथ्या दर्शन। (३२) जीवकिरिया दुविहा पण्णता, तं जहा-सम्मत्तकिरिया चेव, मिच्छत्तकिरिया चेव। ___-स्थानांग २.१.३ जीवक्रिया दो प्रकार की कही गई है, यथा-सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया। (३३) तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी य। -स्थानांग, ३.२.३१८ (३४) सम्मदिट्ठी अमोहो सोही सम्भावदसणबोही। अविवज्जओ सुदिट्ठित्ति एवमाई निरुत्ताई ॥ -आवश्यकनियुक्ति, ८६२ सम्यग्दृष्टि, अमोह, शुद्धि, सद्भाव, दर्शन, बोधि, अविपर्यय, सुदृष्टि आदि सम्यक्त्व की नियुक्ति है। इनका स्पष्टार्थ इस प्रकार है सम्यगर्थानां दर्शनं सम्यग्दृष्टि, विचारेऽमूढत्वं अमोहः, मिथ्यात्वमलापगम: शोधिः, सद्भावो यथास्थाऽर्थस्तदर्शनं, परमार्थज्ञानं बोधिः, अवितथग्रहोऽविपर्ययः, शोभनादृष्टिः, सुदृष्टिः, सम्यक्त्वस्य निरुक्तिः । -वही, गाथा ८६२ ___पदार्थों का सम्यक् दर्शन सम्यग्दृष्टि है, विचार में अमूढता अमोह है, मिथ्यात्व मल का दूर होना शोधि (शुद्धि) है, यथा अवस्थित पदार्थों का वैसा ही दर्शन होना सद्भाव है, परमार्थज्ञान बोधि है, (वस्तु का) अवितथ ग्रहण अविपर्यय है, शोभन दृष्टि सुदृष्टि है; ये सब सम्यक्त्व के निरुक्तिपरक अर्थ हैं। (३५) सत्तण्हं पयडीणं, अभितरओ उ कोडिकोडीणं । काऊण सागराणं, जइ लहइ चउण्हमण्णयरं ।। -आवश्यकनियुक्ति, १०६ जब जीव सात कर्म प्रकृतियों (आयुष्य कर्म को छोड़कर) की स्थिति को अन्तःकोटाकोटि सागरोपम कर लेता है तब वह चार में से एक सामायिक को प्राप्त करता है। उसके अनन्तर ग्रन्थिभेद होकर सम्यक्त्व लाभ होता है। (३६) दंसणवओ हि सफलाणि हुंति तवनाणचरणाई। -आचारांगनियुक्ति, २२१ सम्यग्दर्शन युक्त जीव के तप, ज्ञान एवं चारित्र सफल होते हैं। (३७) कुणमाणो वि निवित्तिं परिच्चयंतो वि सयणधणभोए। दितो वि दुहस्स उरं मिच्छादिट्ठी न सिज्झइ उ॥ आचारांगनियुक्ति, २२० निवृत्ति करने पर भी तथा स्वजन, धन और भोगों का त्याग करने पर भी दुःखी प्राणियों को हृदय देने वाला मिथ्यादृष्टि जीव सिद्ध नहीं होता है। (३८) मिच्छत्तमोहणिज्जा नाणावरणा चरित्तमोहाओ। तिविहतया उम्मुक्का तम्हा ते उत्तमा हुति ।-आवश्यकनियुक्ति, ११०६ सिद्ध भगवान् मिथ्यात्व मोहनीय, ज्ञानावरण एवं चारित्रमोहनीय इन तीन प्रकार के कर्मों से मुक्त होते हैं, इसलिए वे उत्तम होते हैं। __ (३९) जह जह सुज्झइ सलिलं तह तह रूवाइं पासई दिट्ठी। इय जह जह तत्तरुई तह तह तत्तागमो होइ॥-आवश्यकनियुक्ति, ११६९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460