Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 450
________________ सम्यग्दर्शन : परिशिष्ट ४३३ सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा अचेतन और चेतन द्रव्यों का जो उपभोग करता है, वह सब निर्जरा का निमित्त है। सम्मादिट्टी जीवा णीसंका होंति णिब्भया तेण ॥ सत्तभयविष्यमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका || - समयसार, २२८ सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं, इसलिए वे निर्भय होते हैं। क्योंकि वे सप्तभय से रहित होते हैं, इसलिए वे निःशंक होते हैं । सम्मत्तरूप णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । अंतरयो भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी | नियमसार, ५३ (जिनभगवान् के द्वारा प्रतिपादित) जिनागम और उसके ज्ञाता पुरुष (सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में बाह्य) निमित्त है और दर्शन मोहनीय (कर्म) का क्षय, (क्षयोपशम और उपशम) अंतर कारण है 1 सम्मत्तसलिलपवहो णिच्वं हिययम्मि पवट्टदे जस्स । कम्पं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासदे तस्स । - दर्शनपाहुड, ७ जिसके हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह नित्य बहता रहता है, उसका (पूर्व में बाँधा हुआ भी) कर्मरूपी रेत का आवरण नष्ट हो जाता है 1 जध मूलादो खंधो साहापरिवारबहुगुणो होदि । तध जिणदंसणमूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स । - दर्शनपाहुड, ११ जैसे (वृक्ष की) जड़ से शाखा, पत्र, पुष्प, आदि परिवार वाला तथा बहुगुणी स्कन्ध उत्पन्न होता है, वैसे ही जिन धर्म के श्रद्धान को मोक्ष मार्ग का मूल कहा 1 दंसणसुद्धा सुद्धो दंसणसुद्धो लहदि णिव्वाणं ॥ - मोक्षपाहुड, ३९ जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है वही शुद्ध है । सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुष्य ही मोक्ष को प्राप्त करता है । जय तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अधिगो तध सम्मत्तो रिसिसावयदुविधधम्माणं || भावपाहुड, १४२ जैसे तारकाओं में चन्द्रमा और समस्त मृगकुलों में मृगराज सिंह (प्रधान) है, वैसे मुन और श्रावक (सम्बन्धी) दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यग्दर्शन ही प्रधान है 1 इणादूण गुणदो दंसणरदणं धरेह भावेण । सारं गुणरदणाणं सोवाणं पढमं मोक्खस्स ॥ भावपाहुड, १४५ इस प्रकार (सम्यग्दर्शन के) गुण और (मिथ्यात्व के) दोष जानकर सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को भावपूर्वक धारण करो । यह (समस्त) गुणरूपी रत्नों में सारभूत है और मोक्ष (रूपी महल) की पहली सीढ़ी है। मिच्छतं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि । णय धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, १७ मिथ्यात्व प्रकृति का वेदन करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला होता है । जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी रुचिकर नहीं लगता है उसी प्रकार उस मिथ्यात्वी को धर्म रुचिकर नहीं लगता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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