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जिनवाणी- विशेषाङ्क
सम्यग्दर्शन को साम्प्रदायिकता के घेरे में बांधने के प्रयत्न की ओर इंगित करती है । मैं स्वयं एक बार दिगम्बर जैनों की सभा में आचार्य कुन्दकुन्द पर भाषण देने के बाद एक श्वेताम्बर आचार्य के दर्शन करने गया तो, वहां उन श्वेताम्बर आचार्य के कुछ अनुयायियों ने यह कहा कि मैं (लेखक) तो मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करता हूँ, क्योंकि उनकी दृष्टि में आचार्य कुन्दकुन्द पर बोलना मिथ्यादर्शन की प्रशंसा करना था । इन सब घटनाओं के वर्णन करने का उद्देश्य केवल यह है कि यदि हम सम्यग्दर्शन जैसे रत्न को साम्प्रदायिक घेराबंदी बनाने के काम में लेते हैं तो सचमुच ही हम रत्न से कौए उड़ाने का वह काम ले रहे हैं जो एक कंकर से ही किया जा सकता है 1
जैन - परम्परा के मूल में जाएं तो सम्यग्दर्शन का एक अत्यन्त गहरा गैर-साम्प्रदायिक और आध्यात्मिक रूप हमें प्राप्त होगा। उदाहरणतः जैन- परम्परा मानती है कि तिर्यञ्च भी सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं । स्पष्ट है कि यहां सम्यग्दर्शन का अर्थ आत्मा की निर्मलता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । तिर्यञ्च जीव- अजीव, आश्रव-बंध इत्यादि तत्त्वों का विश्लेषण करके उनमें श्रद्धा करते हों, ऐसा संभव नहीं है । न ही उनका सम्यग्दर्शन किसी विशेष देव, गुरु-शास्त्र की श्रद्धा से बंधा हो सकता है । उनका सम्यग्दर्शन तो केवल चेतन के उस परिणमन से जुड़ा हो सकता है जहां मान, माया, क्रोध, लोभ जैसी कषायों की पकड़ कुछ शिथिल पड़ती है।
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कषायों की इस मन्दता का सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय से नहीं । यह नितान्त वैयक्तिक मामला है । जब हम सम्यग्दर्शन को मोक्षमार्ग का प्रारंभ बिन्दु मानते हैं तो हमारा अभिप्राय यही होता है कि जब तक व्यक्ति की कषाय मन्द पड़नी प्रारंभ न हो तब तक मोक्ष की यात्रा का प्रारम्भ नहीं माना जा सकता । सम्यग्दर्शन के इस स्वरूप का साम्प्रदायिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। जैनाचार्यों ने सम्यग्दर्शन के जो लक्षण बताए हैं - मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ भाव, वे भी इसी ओर इंगित करते हैं कि सम्यग्दर्शन का एक व्यावहारिक रूप है जो जीवन के आचरण में अभिव्यक्त होता है । यदि सम्यग्दर्शन की ऐसी उदार परिभाषा को मानें तो सम्प्रदाय की दीवारों को तोड़कर सम्यग्दर्शन का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाएगा। जैन-परम्परा के मूल में सम्यग्दर्शन का ऐसा ही व्यापक रूप परिलक्षित होता भी है । किन्तु इसके विपरीत यदि सम्यग्दर्शन को दार्शनिकों के विवाद में उलझा दें तो सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के बीच ऐसी विभाजक रेखाएं खिंच जाती हैं जो विवाद में उलझाए रखने के लिए तो बहुत उपयुक्त हैं, किन्तु उनका जीवन से कोई संबंध नहीं है 'केवली कवलाहार करता है या नहीं" जैसे प्रश्नों को सम्यग्दर्शन - मिथ्यादर्शन की अवधारणाओं से जोड़कर ऐसे शुष्क कलह उत्पन्न किए जा सकते हैं जो मोक्षमार्ग का प्रारंभ बिन्दु न होकर, बन्ध-मार्ग का प्रारंभ बिन्दु बन जायें ।
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सम्प्रदायवाद के राजनैतिक या सामाजिक दुष्प्रभावों की चर्चा यहां प्रासंगिक नहीं है । किन्तु अध्यात्म की दृष्टि से सम्प्रदाय जितने सूक्ष्म, किन्तु सुदृढ़ राग-द्वेषों को जन्म देता रहा है वह इतिहास के अध्येताओं से छिपा नहीं है । अध्यात्म का एकमात्र लक्ष्य राग-द्वेष का समूलोन्मूलन है, जबकि सम्प्रदाय यत्किञ्चित् राग-द्वेष पर ही खड़ा होता है । हम यहां सम्प्रदाय शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में कर रहे हैं जिस अर्थ में यह
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