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जिनवाणी-विशेषाङ्क मन का कार्य मनन करना, चिन्तन करना, संकल्प-विकल्प करना, इच्छायें करना आदि है। इस पर जब ज्ञान एवम् विवेक का अंकुश रहता है तो वह शुभ में प्रवृति करता है। व्यक्ति को नर से नारायण बनाता है। परन्त जब स्वछन्द होता है तो अपने लक्ष्य से भटका देता है। जब चाहा, जैसा चाहा चिन्तन-मनन, इच्छा-एषणा या आवेग करने लग जाता है जिसका परिणाम होता है क्रोध, मान, माया, लोभ, असंयम, द्वन्द्र, प्रमाद, जैसी अशुभ प्रवृत्तियां । ये सब मानसिक रोगों का कारण है। इसके विपरीत क्षमा, करुणा, दया, मैत्री, सेवा, विनम्रता, सरलता, संतोष, संयम एवं शुभ प्रवृत्तियां मन के उचित कार्य हैं । अतः मानसिक स्वस्थता के प्रतीक हैं। अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह । आत्माकी विभावदशाएं हैं जो कर्मों के आवरण से उसको अपना भान नहीं होने देती अतः ये आत्मा के रोग हैं, तो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, वीतरागता शुद्धात्मा के लक्षण हैं जो आत्मा की स्वस्थता के द्योतक हैं। जैसे कोई व्यक्ति केवल झूठ बोलकर ही जीना चाहे, सत्य बोले ही नहीं तो क्या वह दीर्घकाल तक अपना जीवन सुचारू रूप से चला सकता है ? नहीं, क्योंकि झूठ बोलना आत्मा का स्वभाव नहीं। व्यक्ति छोटा हो या बड़ा अपने स्वभाव में बिना किसी परेशानी के सदेव रह सकता है। बाह्य आलम्बनों एवम् परिस्थितियों में जितना-जितना वह विभाव अवस्था में जावेगा उतना-उतना शारीरिक, मानसिक अथवा आत्मिक रोगी बनता जावेगा। जितना-जितना अपने स्वभाव को विकसित करेगा, स्वस्थ बनता जावेगा। अपने आपको पूर्ण स्वस्थ रखने की कामना रखने वालों को इस तथ्य, सत्य का चिन्तन कर अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ना चाहिये। आरोग्य एवं नीरोगता में अन्तर __ 'नीरोग' होने का मतलब है रोग उत्पन्न ही न हो। 'आरोग्य' का मतलब है शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें उनकी पीड़ा एवं दुष्प्रभावों का अनुभव न हो। आज हमारा सारा प्रयास आरोग्य रहने तक ही सीमित हो गया है उसमें भी हम मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। मानसिक एवं आत्मिक-रोग जो ज्यादा खतरनाक हैं, हमें जन्म, मरण एवं विभिन्न योनियों में भटकाने वाले हैं, की तरफ ध्यान जाता ही नहीं। शारीरिक रूप से भी नीरोग बनना असम्भव सा लगता है। रोग चाहे शारीरिक हो, चाहे मानसिक अथवा आत्मिक उसका प्रभाव तो शरीर पर ही पड़ेगा। अभिव्यक्ति तो शरीर के माध्यम से ही होगी, क्योंकि मन और आत्मा अरूपी है। उसको इन भौतिक आंखों से नहीं देखा जा सकता। मुख्य रूप से रोग आधि (मानसिक) व्याधि (शारीरिक), उपाधि (कर्मजन्य) के रूप में ही प्रकट होते है। अतः आधि, व्याधि, उपाधि को शमन करने से ही समाधि, परम शान्ति अथवा पूर्ण स्वास्थ्य अर्थात् नीरोग अवस्था की प्राप्ति हो सकती है। सम्यग्दर्शी का चिन्तन
सम्यग्दर्शन का सीधा साधा सरल अर्थ होता है सही दृष्टि, सत्य दृष्टि, सही विश्वास । अर्थात् जो वस्तु जैसी है जितनी महत्त्वपूर्ण है, जितनी उपयोगी है उसको उसके स्वरूप, गुण एवं धर्म के आधार पर जानना । सम्यक् दर्शन से स्वविवेक जागृत होता है। स्वदोषदर्शन की प्रवृत्ति विकसित होती है। वस्तुस्थिति ऐसी हो गई है कि हमारा शरीर रूप नौकर एवम् मन रूपी मंत्री आत्मा रूपी मालिक पर शासन कर रहे
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