Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 415
________________ दृष्टि-भेद % र प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानन्द प्रस्तुत लेख में वर्णित इन्द्रिय दृष्टि को मिथ्यादर्शन, बुद्धिदृष्टि को क्षयोपशमलब्धि, विवेकदृष्टि को सम्यग्दर्शन, अन्तर्दृष्टि को सम्यक् चारित्र एवं प्रीति दृष्टि को स्वरूपाचरण समझा जाये तो यह लेख जैनदर्शन के साथ साम्य प्रस्तुत करने में सहायक बनेगा। -सम्पादक. व्यक्ति एक है, दृश्य भी एक है, पर दृष्टियां अनेक हैं। व्यक्ति जिस दृष्टि से दृश्य को देखता है उसके अनुसार उस पर प्रभाव पड़ता है। इन्द्रिय-दृष्टि सबसे स्थूल दृष्टि है। इसके प्रभाव की आसक्ति से चित्त अशुद्ध होता है। इन्द्रिय-दृष्टि से दृश्य में सत्यता, सुन्दरता तथा अनेकता का भास होता है। अथवा यों कहो कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध विषयों में रुचि उत्पन्न होती है, जिससे इन्द्रियां विषयों के, मन इन्द्रियों के और बुद्धि मन के आधीन हो जाती है, जो वास्तव में चित्त की अशुद्धि है। बुद्धि मन के, मन इन्द्रियों के और इन्द्रियां विषयों के अधीन होते ही वस्तुओं में जीवन-बुद्धि हो जाती है। जिसके होते ही प्राणी सुखलोलपुता, जड़ता, पराधीनता, शक्तिहीनता आदि दोषों में आबद्ध हो जाता है। उसका परिणाम यह होता है कि वह बेचारा संकल्प-पूर्ति-अपूर्ति के द्वन्द्व में आबद्ध होकर सुखी-दुःखी होने लगता है। ऐसा कोई संकल्प पूर्ति का सुख है ही नहीं जिसके आदि और अन्त में दुःख का दर्शन न हो। इतना ही नहीं सुखकाल में भी सुख में स्थिरता नहीं रहती। जिस प्रकार तीव्र भूख लगने पर प्रथम ग्रास में जितना सुख भासता है उतना दूसरे में नहीं अर्थात् प्रत्येक ग्रास में क्रमशः सुख की क्षति होती जाती है और अन्तिम ग्रास में सुख नहीं रहता, केवल भोग की क्रिया-जनित सुखद स्मृति ही रह जाती है, जो नवीन संकल्पों को उत्पन्न करती है और प्राणी पुन: उसी स्थिति में आ जाता है जिसमें संकल्प-पूर्ति के सुख से पूर्व था अर्थात् संकल्प-उत्पत्ति का दुःख ज्यों का त्यों भासने लगता है। उसी प्रकार प्रत्येक भोग-प्रवृत्ति का परिणाम होता है। इस दुष्परिणाम की अनुभूति से व्यक्ति को इन्द्रियदृष्टि पर सन्देह होता है। इसके होते ही बुद्धि-दृष्टि का आदर होने लगता है। ज्यों-ज्यों, आदर बढ़ने लगता है त्यों-त्यों इन्द्रियदृष्टि का प्रभाव मिटने लगता है। सर्वांश में प्रभाव मिट जाने पर अन्य वस्तुओं की तो कौन कहे जिस शरीर में सत्यता, सुन्दरता, सुखरूपता प्रतीत होती थी, वह शरीर मल-मूत्र की थैली तथा अनेक व्याधियों का घर प्रमाणित होता है । बुद्धि-दृष्टि के स्थायी . होते ही शरीर आदि वस्तुओं से संबंध विच्छेद करने की रुचि उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में सतत परिवर्तन तथा क्षणभंगुरता का दर्शन स्पष्ट होने लगता है। अथवा यों कहो कि कोई भी वस्तु इन्द्रिय-दृष्टि से जैसी प्रतीत होती थी, अर्थात् उसका एक अपना अस्तित्व मालूम होता था, वह नहीं मालूम होता अपितु वह अनेक वस्तुओं का समूह प्रतीत होता है। इतना ही नहीं बुद्धि-दृष्टि से अनेकता में एकता और व्यक्त में अब्यक्त प्रतीत होता है । इस कारण वस्तुओं की आसक्ति मिट जाती है और वास्तविकता की जिज्ञासा जागृत होती है जो सभी कामनाओं को खाकर स्वतः पूरी हो जाती है। बुद्धि-दृष्टि से राग वैराग्य में और भोग योग में बदल जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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