Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 434
________________ ४१७ बूंद भी चखने को नहीं मिलती। हवन वायु मंडल को शुद्ध करने को किया जाता है, यह भी झूठी दलील है। यदि ऐसा होता तो हवन गंदी बस्तियों में किये जाते न कि स्वच्छ मैदानों में तथा घी, शक्कर, मेवा आदि खाद्य पदार्थों को जलाने के बजाय नीम की पत्तियाँ, गूगल आदि जलाई जाती, क्योंकि नीम की पत्तियाँ तो वैसे भी बेकार जाती हैं। मानव के स्वास्थ्य के लिए भी जहाँ वायु मंडल में आक्सीजन की आवश्यकता होती है, हवन से तो आक्सीजन की कमी होकर कार्बन डाई-आक्साइड गैस बनती है अतः हवन से तो हानि ही है। अतः सिद्धचक्रादि विधानों में हजारों रुपये की. सामग्री जला दी जाती है वह धर्म के नाम पर अधर्म है और राष्ट्रीय अपव्यय है। प्रसिद्ध विद्वान स्व. पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ ने दि. ३.८.६६ के 'वीरवाणी' के सम्पादकीय में लिखा था कि 'हवन के विषय में यह कहना कि इससे वायु शुद्ध होती है और बादल बनकर वर्षा आ जाती है, बिल्कुल बेबुनियाद तो है ही हास्यास्पद भी है। यदि आग में घी जलाने से वर्षा आ जाती तो हमारे देश में समरया, पचीस्या, चोंतीस्या और छपन्या जैसे भयंकर दुर्भिक्ष कभी न पड़ते। ...यदि हवन पानी ला सके तो वर्षा की हर समय और हर क्षेत्र में आसानी हो जावेगी और कोई भी हवन का विरोध करने का साहस नहीं कर सकेगा। ..ग्रह आदि के प्रकोप को शांत करने के अन्ध विश्वास से प्रेरित होकर भी बहुत से भाई-बहिन हवन के चक्र में फँस जाते हैं।' चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में उत्तर भारत में १२ वर्ष का अकाल पड़ा था। यदि मंत्र-तंत्र-हवन करके ही वर्षा लाई जा सकती हो तो हमारे उस समय के पूर्वज १२ वर्ष तक अकाल का दुःख क्यों सहते रहते। वर्तमान में भी वर्षा न होने पर जहाँ कहीं भी हवन, यज्ञ आदि किये जाते हैं उनका कोई असर नहीं होता। उदाहरण के लिए जून १९८३ में संगम में प्रकाशित समाचार के अनुसार कन्याकुमारी में वर्षा के लिए १० दिन तक होम यज्ञ होता रहा और ६ ब्राह्मण गले तक पानी में खड़े होकर वर्षा के लिए प्रार्थना करते रहे, परन्तु पानी नहीं बरसा। पं. फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री वाराणसी ने लिखा है 'हवन की परिपाटी का जैन-परम्परा से कोई सम्बन्ध नहीं है। --यह नवीं शताब्दी से चालू हुई जान पड़ती है।' स्व. पं. बेचरदास जी.दोशी ने भी 'जैन जगत् , सितम्बर १९६१ में लिखा था-'होम-हवन, ग्रह पूजन, दिग्पाल पूजन-ये सब प्रक्रियाएँ वैदिक परम्परा की हैं। ....जड़ कर्मकांड एक न एक दिन नष्ट होकर रहेंगे... अतः हम समय रहते भ्रांत एवं निराधार पद्धतियों की जगह विकासोन्मुख करने वाली पद्धतियाँ चालू करें इसी में सबका भला है।' .. मांगने के लिये प्रार्थना करना धर्मानुकूल नहीं जैन धर्मानुसार तीर्थंकरों से हम केवल प्रेरणा लेते हैं। वे (अर्हन्त) न हमें कुछ देते हैं, न दे सकते हैं और न हमसे भक्ति आदि की कोई अपेक्षा करते हैं। अतः जैन धर्मानुसार अरहन्तों के गुणों में प्रशस्त अनुराग का होना ही उनकी भक्ति है-'गुणानुरागः भक्तिः ' और उनके गुणानुवाद की सीमा से बाहर उनके वैभव आदि का वर्णन करते हुए उनके प्रति भक्ति प्रदर्शित करना व उनसे किसी भी प्रकार मांगने को प्रार्थना करना, जैन धर्म के सिद्धान्तों से विपरीत है, भक्ति का अतिरेक हैं। हमारा णमोकार मंत्र भी भावना रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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