Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 437
________________ ४२० जिनवाणी-विशेषाङ्क धोखा नहीं देते ? पूजक प्रतीक के रूप में चढ़ाते तो हैं चांवल, गिरि आदि द्रव्य, परन्तु बहुमूल्य भोग पदार्थों के चढ़ाने का नाम लेकर क्या जिनेन्द्र को धोखा नहीं देते? इसके समर्थन में कहा जाता है कि यह तो स्थापना निक्षेप है, धोखा देना नहीं है। मेरा प्रश्न है कि कांच को हीरा कहकर या किसी नकली वस्तु को असली बताकर बेचने वाला दुकानदार भी कोर्ट में जाकर कहे कि मैंने तो स्थापना निक्षेप से कांच का हीरा या नकली वस्तु को असली कहकर बेचा है, मैंने धोखा नहीं दिया है, तो आपके स्थापना निक्षेप की कोर्ट में क्या दुर्गति होगी? अस्तु, अष्ट द्रव्य की निस्सारता को अनुभव कर वर्तमान के कुछ कवियों ने अपनी नवीन पूजाओं में कवि कल्पनाओं द्वारा उसे आध्यात्मिक भावनाओं का वाहक बताने का प्रयल किया है, परन्तु उपमाएँ और उपेक्षाएँ तो कल्पित ही होती हैं, वास्तविक नहीं होती, उनके आधार पर भी अष्ट द्रव्य को आलम्बन नहीं कहा जा सकता। द्रव्य वास्तव में हिन्दुओं के पूज्य-पूजक भाव से अपनाया गया है, एकाग्रता के आलम्बन के रूप में नहीं और क्योंकि वह भाव जैन धर्म विहित नहीं है अतः द्रव्य को आलम्बन कहा जाने लगा। जो बन्धु यह समझते है कि उन्हें अष्ट द्रव्य के कारण पूजा के भावों में एकाग्रता हो जाती है वे अष्ट द्रव्य के बिना भी पूजा करके देखें, उस स्थिति में भी एकाग्रता होगी तब उन्हें स्वयं ज्ञात हो जायेगा कि अष्ट द्रव्य आलम्बन नहीं है। एकाग्रता का आलम्बन तो भावना होती है, अष्ट द्रव्य में ऐसी कोई खूबी नहीं है, उसके कारण तो भावना उपेक्षित हुई है कि व्यक्ति भावना न होते हुए भी द्रव्य चढ़ाकर ही समझ लेता है, मैं पूजा के फल का अधिकारी हो गया। भावना भी जितनी गहरी होती है एकाग्रता उतनी ही अधिक होती है। यह मनोविज्ञान का नियम है। परन्तु अष्ट द्रव्य द्वारा पूजा करने में तो मन को बार-बार भावना से हटाकर द्रव्य में ले जाना पड़ता है उस अवस्था में भावना गहरी होकर एकाग्रता कैसे हो सकती है। इसके अतिरिक्त जो लोग पूजा सुनते हैं उनके लिए भी अष्ट द्रव्य आलम्बन कैसे बन जाता है। क्योंकि वे स्वयं तो अष्ट द्रव्य को चढ़ाते नहीं? वे तो केवल (१) पूजा में जो कुछ बोला जाता है उसकी भावना में तथा (२) द्रव्य चढ़ाने की भावना में मन को लगाते हैं। अतः दोनों अवस्थाओं में उनका आलम्बन भावना होती है, द्रव्य नहीं। अस्तु, यह कहना धोखा है कि अष्ट द्रव्य आलम्बन है। इस भ्रमपूर्ण मान्यता ने तो अरहन्त भगवान की पूजा उपासना को धन-साध्य बनाकर एक गरीब व्यक्ति के लिए उसे असंभव बना दिया है। .. इस प्रकार अष्ट द्रव्य तथा उसे चढ़ाते समय की जाने वाली भावनाएँ (दोनों ही) कषाय के संस्कारों को तोड़ने के लिए उपासना का आलम्बन माने जाने की कसौटी पर सही नहीं उतरती। यही कारण है कि अष्ट द्रव्य पूजा का गोरखधंधा करते हुए आयु बीत जाने पर भी हम आध्यात्मिक दृष्टि से वहीं बने रहते हैं, जरा भी प्रगति नहीं कर पाते। प्राचीनकाल में केवल अष्ट द्रव्य पूजा नहीं थी (१)अमितगति श्रावकाचार के परिच्छेद ८ श्लोक २९ में कहा है, 'सामायिकं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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