Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 429
________________ ४१२. जिनवाणी-विशेषाङ्क यह संभव होना बताया है, और लिखा है कि 'सिवाय किसी अदृश्य शक्ति की सहायता के यह सब कैसे संभव हो सकता है।' उन्होंने यहां तक लिख दिया है कि 'जिनदेव की आराधना, पूजन व जाप का विधान है। फल कौन देता है। आपकी भक्ति से प्रभावित जिन शासन से अनुबन्धित देवी-देवता ही आपको मार्ग दर्शन देते हैं तथा क्रूर ग्रहों के प्रकोपों से शांति प्रदान करने में सहायक होते हैं।' इस सम्बन्ध में मेरा निम्नानुसार कहना है (१) जैन करणानुयोग के ग्रन्थों में अलग-अलग प्रकार के देव बताये गये हैं, उनमें से किसी भी प्रकार के देवों के लिए यह कथन नहीं है कि वे जैन शासन के व धर्मात्माओं के रक्षक हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्ड व त्रिलोकसार आदि में जहाँ-जहाँ यक्ष-यक्षिणियों के वर्णन हैं, वहां किसी के लिए यह नहीं लिखा गया है कि वे जैनशासन के रक्षक शासन-देव हैं, न यह लिखा गया है कि इनकी पूजा-भक्ति करना चाहिये । इस प्रकार जब जैनकरणानुयोग के ग्रन्थों के अनुसार शासन के रक्षक रूप में कोई देवी-देवताओं का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता तो पुराणों व प्रतिष्ठापाठों आदि में आये वर्णनों का कोई महत्त्व नहीं है। अन्य शास्त्रों के अवलोकन से यह भी विदित होता है कि कुंदकुंदाचार्य से लेकर आचार्य जिनसेन के काल तक शासन देव-पूजा का कोई विधान नहीं है। आचार्य कुंदकुंद ने तो स्पष्ट ही लिखा है, 'असंजदं ण वंदे अर्थात् असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए। अस्तु, शासनदेवों का यदि अस्तित्व भी होता तो भी जैन धर्मानुसार उनकी पूजा भक्ति करना मिथ्यात्व है, क्योंकि देव गति में किसी को भी संयम होता ही नहीं है। आचार्य जिनसेन के महापुराण में चौबीसों तीर्थंकरों का विस्तृत चरित्र दिया गया है, परन्तु किसी भी तीर्थंकर के चरित्र में किसी एक भी शासनदेवी का उल्लेख नहीं है, जबकि शासन देवों के समर्थकों की मान्यता है कि प्रत्येक तीर्थंकर का एक-एक शासनदेव और देवी है। प्रतिष्ठापाठों में भी सबसे प्राचीन प्रतिष्ठापाठ जयसेन तथा वसुनंदि के माने जाते हैं, उनमें शासनदेव देवियों का नाम भी नहीं है। एक विद्वान् ने स्वामी समंतभद्र के स्वयंभूस्तोत्र में धरणेन्द्र-पद्मावती का उल्लेख होना बताया है जो गलत है। मूल स्वयंभूस्तोत्र में ऐसाकोई पद्य नहीं हैं। वहां तो यह पद्य है-'साधिराजाः कमठारितो यैः ध्यानस्थितस्यैव फणावितानैः। यस्योपसर्ग निरवर्तयत्तं, नमामि पावं महतादरेण'। इससे कैसे अर्थ निकाला जा सकता है कि उपसर्ग दूर करने वाले सर्पराज धरणेन्द्र एवं पद्मावती थे? प्रसिद्ध विद्वान् पं. मिलापचन्द जी रतनलाल जी कटारिया ने भी 'जैन निबन्ध रत्नावली' के चार लेखों में अनेक शास्त्रीय प्रमाण देकर प्रतिपादित किया है कि किसी भी प्रामाणिक प्राचीन जैन आगम में शासन-देव-देवियों का कथाचरित्र नहीं मिलता है, न यह मिलता है कि किस वजह से ये शासनदेव देवियाँ मानी गई हैं, न धरणेन्द्र की पद्मावती नाम की देवी होने और उन दोनों के भ. पार्श्वनाथ के शासन देव-देवी होने का उल्लेख मिलता है। परन्तु बाद का समय जैन धर्मावलम्बियों के लिए विशेषकर दक्षिण भारत में बड़ी कठिनाई का व्यतीत हुआ। शैवों के प्रभाव से कई नरेशों ने जैनियों पर अमानुषिक अत्याचार किये। जैसाकि विंसेंट ए. स्मिथ ने भारत वर्ष के इतिहास में लिखा है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460