Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 427
________________ मूर्तिपूजा एवं देव-देवियों सम्बन्धी मिथ्यात्व - बिरधी लाल सेठी प्रस्तुत लेख मूर्तिपूजा में आयी विकृतियों एवं देव-देवियों सम्बन्धी मिथ्या मान्यताओं पर प्रखर प्रकाश डालता है। लेखक दिगम्बर जैन हैं, किन्तु उन्होंने प्रचलित, अन्धविश्वास परक व्यर्थ की मान्यताओं का खुलकर खण्डन किया है। लेखक स्वर्गस्थ हो चुके हैं। उनकी दो लघु पुस्तिकाओं 'जैनमूर्तिपूजा में व्याप्त विकृतियां, तथा 'पद्मावती आदि शासन देवों, होम, हवन, मंत्र , तन्त्र सम्बन्धी मिथ्यात्व' का अंश यहां संकलित सम्पादित है।-सम्पादक अरहंत की उपासना से सांसारिक कामनाओं की पूर्ति मानना मिथ्यात्व है-अरहन्त भगवान् की भक्ति तो केवल उन्हीं की तरह वीतराग बनने को की जाती है और उसका फल है निराकुल, सब प्रकार के तनावों से रहित, सुख-शांति मय जीवन । सांसारिक कामनाओं की पूर्ति की तृष्णा की खाई कभी नहीं भर सकती और उसका फल दुःख ही दुःख है। अतः जो व्यक्ति धर्म के द्वारा सांसारिक कामनाओं की पूर्ति की तृष्णा रखते हैं वे तो अपने आपको वीतराग अरहन्तों के उपासक व जैन कहलाने के अधिकारी ही नहीं हैं। जो साधु व विद्वान् भी कहते हैं कि अरहंत भगवान की भक्ति से सांसारिक कामनाएँ पूरी हो सकती हैं और जो उनकी पूर्ति के लिए महावीरजी, तिजारा, पद्मपुरा आदि अतिशय क्षेत्रों की पूजा-भक्ति व मनौतियों का समर्थन करते हैं वे मिथ्यात्व का ही पोषण कर रहे हैं। क्योंकि शास्त्रों में कहा है कि जैनत्व की सबसे पहली आवश्यकता सम्यग्दर्शन है और जो व्यक्ति लौकिक वांछाएँ रखता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता। अतः होना तो यह चाहिए था कि वे केवल शास्त्रों के आधार से नहीं, प्रत्युत युक्तियों के आधार पर कर्म-फल की उपयुक्त वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझाकर अपने भक्तों के गले उतारते कि हमारे कमों का फल हमें ही भोगना है । अपनी कषायों को निर्मल करके प्रायश्चित्त और प्रतिक्रमण द्वारा, आबद्ध कर्मों की निर्जरा करके हम स्वयं ही अपने दुःखों को दूर या हलका कर सकते हैं, अरहन्त भगवान या अन्य कोई देवता कुछ नहीं कर सकता। तीर्थंकरों पर भी दुःख आये हैं, वे भी कुछ नहीं कर सके। धर्म करोगे उसका फल तो इस जीवन में ही तत्काल मिलना शुरू हो जावेगा। सब प्रकार के तनाव जाते रहेगें। परन्तु खेद है, हमारे साधु व विद्वानों ने गलत तरीका अपनाया। भेदविज्ञान की भावना द्वारा तृष्णा को कम करने के बजाय उन्होंने धर्म का फल स्वर्गों का सुख बताकर भोगों की तृष्णा को बढ़ावा दिया, अरहन्त प्रतिमाओं में अतिशय और चमत्कार की कल्पना करके उनके मिथ्यात्व को और दृढ़ कर दिया, उन्हें बुतपरस्त बना दिया। लोग तीर्थंकर प्रतिमाओं की मनौती करने लगे । यह भी नहीं सोचा कि जिन-जिन अरहन्त प्रतिमाओं में हम अतिशय और चमत्कार मानते हैं, वे अपने भक्तों की मनौतियाँ कैसे पूरी कर सकती हैं जबकि वे अपने पर आये उपसर्गों से व चोरों से अपनी स्वयं की भी रक्षा नहीं कर सकतीं। . . एक पत्र के संपादक जी ने लिखा है कि दरिद्रता होने पर धन-प्राप्ति के लिए तथा * पूर्व चेयरमेन ,राजस्थान बैंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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