Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 419
________________ जिनवाणी- विशेषाङ्क महावीर जब तुमसे कहते हैं, आशंका नहीं चाहिये, निःशंका की स्थिति चाहिये, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निःशंका को आरोपित करो। वे इतना ही कह रहे हैं। कि तुम अपनी आशंका को जरा गौर से खोलकर, आंखों के सामने बिछाकर तो देख लो, वहां कोई कारण है ? कोई भी कारण नहीं है । जिस दिन तुम्हें ऐसी दृष्टि उपलब्ध होगी कि डरने का कोई भी कारण नहीं है, खोने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि है ही नहीं, उसी क्षण तुम्हारे जीवन में एक नई ऊर्जा का आविर्भाव होगा । उस नई ऊर्जा को कहो - श्रद्धा, भरोसा, ट्रस्ट । उस नई ऊर्जा को कहो - निःशंका । तब तुम असंदिग्ध भाव से बिना पीछे लौटकर देखे, सत्य की खोज में निकल जाओगे | ४०२ महावीर तुमसे श्रद्धा जन्माने को नहीं कहते । यही महावीर का और अन्य शिक्षकों का भेद है। महावीर कहते हैं, तुम अपनी आशंका को ठीक से पहचान लो, वह गिर जाएगी। जो शेष रह जायेगा, वही श्रद्धा है । यहाँ महावीर श्रद्धा कह सकते थे, लेकिन नहीं कहा, साहस कह सकते थे, नहीं कहा। नकारात्मक शब्द उपयोग किया— निश्शंका | कोई विधायक शब्द उपयोग न किया, क्योंकि विधायक की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ आशंका समझ आ जाए कि यह व्यर्थ है, कोरी है, अकारण है । फिर आशंका गिर जाती है, तब जो शंकारहित चित्त की दशा है वही श्रद्धा है, वही साहस है, वही अभय है। इससे तुम्हारे भीतर एक अनूठी ऊर्जा का जन्म होगा । वह दबी पड़ी है। चट्टान ने, आशंका की चट्टान ने उस झरने को फूटने से रोका है । हटा दो चट्टान, झरना अपने से फूट पड़ेगा । वह है ही । झरना तुमने खोया नहीं है । इसलिए महावीर नहीं कहते कि झरनेको खोजो । महावीर नहीं कहते कि श्रद्धा को आरोपित करो । महावीर कहते हैं, सिर्फ आशंका को उघाड़ो । दूसरा चरण है निष्कांक्षा । जो भी तुम करो सत्य की खोज में, उसमें कोई आकांक्षा मत रखना, क्योंकि आकांक्षा ही संसार है । अगर सत्य की खोज पर भी आकांक्षा लेकर गये, तो तुम अपने को धोखा दे रहे हो, तुम संसार में ही दौड़ रहे हो। तुम्हें भ्रांति हो गई है कि तुम सत्य की खोज पर जा रहे हो । सत्य की खोज पर वही जाता है जिसकी आकांक्षा गिर गई । आकांक्षा क्या है ? जैसे हम हैं उससे हम राजी नहीं हैं। एक बड़ी गहरी बेचैनी है - कुछ होने की कुछ पाने की, कहीं और होने की कहीं और जाने की। जहां हम हैं वहां अतृप्ति । जैसे हम हैं वहां अतृप्ति । जो हम हैं उससे अतृप्ति । कुछ और होना था, कहीं और होना था। किसी और मकान में, किसी और गांव में । किसी और पति के पास, किसी और पत्नी के पास कोई और बेटे होते । कोई और देह होती । कोई और तिजोड़ी होती | लेकिन कुछ और। कुछ और की दौड़ आकांक्षा है । 1 तुम थोड़ा सोचो । कहीं भी तुम होते, क्या इससे आकांक्षा की दौड़ रुक जाती ? तुम सोचते हो, जिस महल में तुम्हें होना चाहिए था, उसमें कोई है, उससे तो पूछो । वह कहीं और होने की दौड़ में लगा है। तुम जिस पद पर नहीं हो और सोचते हो होना चाहिए थे, उस पद पर भी कोई है। उससे तो पूछो। वह कहीं और जाने की तैयारी में लगा है। जिस गांव तुम पहुंचना चाहते हो, वहां भी कोई रहता है। उससे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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