Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 409
________________ ३९२ जिनवाणी-विशेषाङ्क ३. सम्यग्दर्शन प्राप्त उसी को हो सकता है जिसने पूर्ण दृढ़ता से मोक्षमार्ग को अपनाया है। ४. सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्नत्रय मिल कर धर्म बनता है । इस धर्म की प्राप्ति के बाद कर्म-बंध नहीं होता। ५. सम्यग्दर्शन का प्रमुख लक्षण वीतरागता है। श्रीमदजी के प्रसिद्ध 'मलमार्ग' काव्य में रत्नत्रय की अतिशय सारभूत व्याख्या की गई है। उस काव्य में आपने बताया है कि सम्यक्त्व यानी आत्मा शरीर से भिन्न है, वह नित्य है और उसके गुण, ज्ञान और उपयोग हैं इस तत्त्व पर दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिए। 'सम्यक्त्व' के और प्रकार बताते हुए आपने बताया है कि आत्मा के ज्ञान, उपयोग, शुद्धता, नित्यता आदि गुणों पर अटूट और अखंड श्रद्धा को 'क्षायिक' सम्यग्दर्शन और मध्यमध्य में उस श्रद्धा में विस्मृति या खंड हो जाता हो या वह क्षीण होता हो तो उसे क्षायोपशमिक समकित कहा जाता है। श्रीमद्जी ने यह भी बतला दिया है कि जिसे सम्यक् दर्शन हुआ है, वह सांसारिक और व्यावहारिक कामों से, क्रियाओं से मुक्त हो जाएगा ऐसी बात नहीं। साधक वे सब कार्य या कर्तव्य बिना आसक्ति, मोह, या अहंकार के करता रहता है। श्रीमद्जी द्वारा रचित 'आत्मसिद्धि' (जिसे पंडित सुखलालजी ने 'आत्मोपनिषद्' कहा है) सम्यक् दर्शन की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है। आत्मसिद्धि में कहे हुए-१ आत्मा है २ आत्मा नित्य है ३ आत्मा कर्ता है ४ आत्मा भोक्ता है ५ मोक्ष है और ६ मोक्ष का उपाय है, इन छह पद-तत्वों को जानना और चिंतन करना साधक के लिए बहुत आवश्यक है। ज्ञानियों ने इन छह पदों को सम्यक् दर्शन का उत्पत्ति-स्थान बताया है। छह पदों के बारे में कुछ जान लेना आवश्यक और उपयोगी है। प्रथम पद 'आत्मा है' यह जानना, उस पर श्रद्धा होना सम्यक् दर्शन होने के लिये और आत्म-सिद्धि के लिये मूलभूत बात है। आत्मा पुद्गल नहीं होने से और अरूपी होने से वस्त्र आदि के समान बताया नहीं जा सकता, लेकिन उसका अस्तित्व और अनुभव हमें पलपल होता है। आत्मा ही ज्ञान है और उपयोग उसका लक्षण है। इस कारण वह जानता है और संवेदन का अनुभव करता है। पुद्गल शरीर में यह क्षमता नहीं है। दूसरा पद है-'आत्मा नित्य अविनाशी है।' वह न कभी उत्पन्न हुआ न कभी उसका अंत है। हम शरीर नहीं, आत्मा हैं। शरीर तात्कालिक है, लेकिन आत्मा नित्य है। वह इस जन्म के पहले था और जन्म के पश्चात् भी रहने वाला है। तीसरा पद है-'आत्मा कर्ता है।' वह शुभ या अशुभ क्रिया करता है। दूसरे पदार्थों की तरह आत्मा में क्रिया करने की क्षमता है। जब वह अपनी क्षमता का उपयोग आत्मविकास के लिए करता है, तो आत्मा अपने आपको शुद्ध बना सकता है और मुक्ति प्राप्त कर सकता है । इसे उसको अपने स्वभाव में होना कहा जाता है। चौथा पद है—'आत्मा भोक्ता है।' आत्मा कर्ता होकर जो कर्मवर्गणा एकत्रित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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