Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 412
________________ सम्यग्दर्शन : विविध ३९५ एक अव्ययभाव अर्थात् आत्मवस्तु को देखता है तथा अलग-अलग शरीरों में अविभक्त आत्म-तत्त्व को देखता है वही सात्त्विक ज्ञान- सम्यक् ज्ञान है । शाङ्करभाष्य (गीता १८.२० ) में कहा है- तद् ज्ञानम् अद्वैतात्मदर्शनं सात्त्विकं सम्यग्दर्शनं विद्धि ।' सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान का स्वाभाविक परिणाम सम्यक् दर्शन - समदर्शन है। गीता में आद्योपान्त इसी समदर्शन की महिमा गायी गयी है । उपदेश के रूप में गीता का प्रारम्भ जिस श्लोक से माना गया है वह प्रारम्भिक श्लोक समदर्शन की महत्ता स्पष्ट करता है 'अशोच्यान- वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतानागतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ गीता, २.११ इसके बाद तो भगवान् ने लगभग प्रत्येक अध्याय में समदर्शन या समत्व योग की बात कही है - 'समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।' गीता, २ . १५ 'सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।' २.३८ 'सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।' २.४८ ‘यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।' २.५७ 'समः सिद्धावासिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।' ४.२२ 'इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । ५.१९ 'शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शितः ।' ५.१८ ‘योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।' ६.५८ 'समबुद्धिर्विशिष्यते ।' ६.९ 'ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः । ६.२९ 'समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ९.२९ 'संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः १२.४ ‘निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ।' १२.१३ 'समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।' १२.१८ 'नित्यं च समचित्तत्वम्' १३.९ 'समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । १४.२४ 'समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।' १८.५४ स्पष्ट है कि समदर्शन परमश्रेय का उत्तम साधन है । यह समदर्शन अद्वैतबोध का परिणाम है। बिना अद्वैतबोध के समदर्शन सम्भव नहीं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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