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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार
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(६) जीवन की नश्वरता के प्रति जागृत भाव- सम्यग्दर्शनी की दृष्टि से जीवन अशाश्वत-पानी के बुद्बुद सदृश क्षणभंगुर है, पता नहीं आयुष्य कब पूर्ण हो जाये और उसी के साथ जीवन की इहलीला समाप्त हो जावे । आधि-व्याधियों के पिंड - रूप इस शरीर में पता नहीं कब कौन-सा रोग उत्पन्न होकर कंचन जैसी दिखाई देने वाली काया को कृष व मलिन बना दे । अतः अल्पकालिक इस जीवन को सार्थक बनाने हेतु वह धर्माराधन में रत रहता है । प्रतिपल, प्रतिक्षण सावधान रहता है कि जीवन की ये अनमोल घडियां प्रमाद में यों ही व्यतीत न हो जावें और मैं कोरा का कोरा नहीं रह जाऊँ अतः शुभ चिंतन व शुभ कार्यों में प्रवृत्ति-रत जीवन जीता हुआ वह अशुभ कर्म-बंधन से बचा रहता है। जबकि मिथ्या - दृष्टि इसके प्रति उपेक्षा भाव रखता हुआ सोचता है - जीवन काफी लम्बा है, आवश्यक करणीय कार्य बाद में कर लेंगे, अभी तो मौज-मस्ती का समय है । अतः प्रमाद एवं इन्द्रिय-विषय सेवन के कारण अज्ञानी जीव अशुभ कर्मों का आश्रव करता रहता है ।
(७) बुराई में से अच्छाई का चयन- संसार में अच्छाई और बुराई दोनों ही प्रकार की स्थितियों की विद्यमानता है । सम्यग्दृष्टि उनमें से अच्छी और जीवन हितकारिणी स्थिति को ग्रहण कर बुरी को त्याग करता है । क्योंकि 'नीर-क्षीर विवेक' सम्यग्दृष्टि का लक्षण है । वर्तमानयुगीन भौतिकता की चकाचौंध व्यक्ति को इतना आकृष्ट करती है कि वह वास्तविकता को विस्मृत कर देता है। खान-पान, आचार-विचार, रहन-सहन यहाँ तक कि धार्मिकता के क्षेत्र को भी भौतिकता ने बुरी तरह प्रभावित किया है । फलतः सभी क्षेत्रों में अनेकानेक विकृतियों ने जन्म लिया है, किन्तु सम्यग्दृष्टि की दृष्टि पैनी एवं विवेक-युक्त होती है । वह बुराइयों को त्यागता है और अच्छाइयों को ग्रहण करता है । अतः पाप - मूलक प्रवृत्ति से बचा रहता है ।
(८) काम - भोग और भोगापभोग में ममत्व बुद्धि का त्याग - सम्यग्दृष्टि जीव विषय-भोगों में गृद्ध नहीं होता । इन्द्रिय विषय - सेवन को संसार - राग वृद्धि का कारण समझ कर उनसे सजग रहता है । भोगोपभोग की विपुल सामग्री उपलब्ध होने पर भी उसके प्रति आकृष्ट न होकर उसकी ओर पीठ दिये रहता है, उसके प्रति ममत्त्व - बुद्धि का परित्याग कर उदासीन बना रहता है। कारण कि इसके द्वारा पाँचों ही आश्रवों का सेवन होता रहता है। अतः ज्ञानी जन अपने कथन के माध्यम से सम्यरदृष्टि का काम-भोगों एवं भोगोपभोग के प्रति अलिप्त भाव प्रकट करते हुए लिखते हैंचक्रवर्ती की संपदा, इन्द्र सरीखा भोग ।
काक बीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग ॥
यहां पर सम्यग्दृष्टि की निर्लिप्तता व उदासीनता की मनः स्थिति बनने का कारण ज्ञानी जन महापुरुषों के वचनों पर उसकी प्रतीति होना है । ज्ञानियों ने काम भोग- सेवन को प्रारंभ में सुखाभास कराने वाला, किन्तु अंत में परिणाम की दृष्टि से इहलोक और परलोक के लिए दुःखदायी तथा अनिष्टकारक बताते हुए किंपाक फल के सेवन के सदृश माना है जिसे निम्नांकित कथन द्वारा स्पष्ट किया गया है
काम भोग प्यारा लगे, फल किंपाक समान । 'मीठी खाज खुजावता, पाछे दुःख की खान ॥
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