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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार कसर नहीं रखी। परिवार के सभी लोग चिंतित थे। अंत में एक दिन मैंने संकल्प किया कि मेरा रोग ठीक हो जावे तो मैं मनि बनकर संयम पालन करूंगा। मेरी पीड़ा शांत हो गई और मैंने संसार का त्याग कर मुनि जीवन अंगीकार कर लिया। यह थी मेरी अनाथता।'
राजा को इससे प्रतिबोध प्राप्त हुआ। उन्होंने समझ लिया कि आत्मा को सनाथ-अनाथ बनाने वाले साधन स्वजन परिजन, धन आदि नहीं। स्वयं अपनी आत्मा ही है। आत्मा अपने ही कर्मों से सनाथ-अनाथ बनती है। इस प्रकार उन्होंने मुनि के उपदेश से परमार्थ का ज्ञान प्राप्त कर सम्यकदृष्टि प्राप्त की। महा निर्ग्रन्थ अनाथी मनि के सान्निध्य से उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। सम्यक्त्व पूर्वक साधना करते हुए वे आगामी चौबीसी में प्रथम तीर्थंकर बनेंगे।
(३) जिनशासन सेवा के आदर्श वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा सम्यक्त्व, प्राप्ति का उल्लेख प्रायः अनुपलब्ध है। यह सैद्धान्तिक तथ्य है कि वासुदेव निदानकृत होते हैं अतः वे प्रव्रज्या या संयम ग्रहण नहीं कर सकते। धन-वैभव का त्याग कर श्रमण नहीं बन सकते। _इसके साथ यह भी निश्चित है, ऐतिहासिक तथ्य है कि वासुदेव श्रीकृष्ण आगामी चौबीसी में 'अमम' नामक १२वें तीर्थंकर बनेंगे। स्वयं तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि ने यह तथ्य श्रीकृष्ण को बताया था, जब वे द्वारिकानाश के प्रसंग में प्रव्रज्या न ले सकने के कारण अपने को अधन्य, अकृत-पुण्य आदि बताकर पश्चात्ताप करने लगे थे। इतनी बड़ी उपलब्धि जिसे होने वाली है, उन श्रीकृष्ण महाराज को सम्यक्त्व अवश्य प्राप्त हुआ होगा। क्योंकि सम्यक्त्व तो मूल है जिस पर तीर्थंकरत्व का भव्य भवन निर्मित होने वाला है। मिथ्यात्वी आत्मा तो तीर्थंकर नहीं बन सकती। बहुश्रुत पं. रत्न श्री समर्थमल जी म.सा. के प्रश्नोत्तर संकलन ‘समर्थ समाधान' भाग २ प्रश्न १२४८ के उत्तर में बताया गया कि जो निदान वस्तु-प्रत्यय तथा मन्दरस का होता है, उस निदान के फलने के बाद व्रत प्राप्ति हो सकती है, जैसे द्रौपदी आदि को हुई।
वासुदेव श्रीकृष्ण के श्रावक धर्म स्वीकार करने का उल्लेख स्व. पू. आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. कृत 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' भाग १ में हुआ है। इतिहासकार आचार्य ने इसका सन्दर्भ त्रिष्टिशलाका पुरुषचरित्र, पर्व ८ सर्ग ९ श्लोक ३७८ को उद्धृत कर बताया है।
वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा सम्यक्त्व-प्राप्ति का उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के केवलज्ञान-प्राप्ति और चतुर्विध संघ की स्थापना के साथ जुड़ा हुआ है। प्रव्रज्या ग्रहण करने के ५४ दिन बाद विविध प्रकार के तप करते हुए अष्टमतप में ध्यानलीन प्रभु को आश्विन कृष्णा अमावस्या के पूर्वाह्नकाल में केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुई। भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ जानकर देवों ने रेवताचल पर अनुपम समवसरण की रचना की। वहाँ के विस्मित रक्षकों ने इसकी सूचना तत्क्षण महाराज श्रीकृष्ण को दी। श्रीकृष्ण ने अत्यन्त प्रसन्न होकर रक्षकों को बारह करोड़ रौप्य मुद्राओं (दी की
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