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तत्त्वार्थसूत्र और वेदान्तदर्शन में सम्यग्दर्शन
- डॉ. (सुश्री) सरोज कौशल जैनदर्शन में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन का साम्य न्यायदर्शन में निरूपित तत्त्वज्ञान, . सांख्यदर्शन में निरूपित विवेकख्याति एवं वेदान्त में निरूपित आत्मज्ञान से किया जा सकता है। लेखिका ने तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर सम्यग्दर्शन का विवेचन करने के पश्चात् वेदान्तदर्शन में प्रतिपादित साधनचतुष्टय से सम्यग्दर्शन के लक्षणों की तुलना की है, जो इनमें पर्याप्त साम्य को पुष्ट करती है।-सम्पादक - प्रायः प्रत्येक भारतीय दर्शन का चरम लक्ष्य मोक्ष है। जैन दर्शन में भी 'मोक्षमार्ग' का निरूपण है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा है - 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः'।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ये तीनों समुदित रूप से मोक्षमार्ग हैं। सम्यग्दर्शन को मोक्षमार्ग में प्रथम स्थान दिया गया है। सम्यग्दर्शन से क्या तात्पर्य है? इसका लक्षण क्या है? इस सन्दर्भ में जब दृष्टिपात किया जाता है तो सम्यक् तथा दर्शन ये दो पद प्राप्त होते हैं।
सम्यक् - व्याकरण की दृष्टि से अवलोकन करें तो सम् उपसर्गपूर्वक अञ्च धातु से क्विप् प्रत्यय होकर सम्यक् शब्द निष्पन्न होता है । सम्यक् शब्द का अर्थ है - प्रशंसा।
दर्शन - दृश् धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर 'दर्शन' शब्द निष्पन्न होता है। 'दृश्यतेऽनेन' जिसके द्वारा देखा जाये वह दर्शन है।
यदि ‘सम्यग्दर्शन' का शाब्दिक अर्थ करें तो अर्थ होगा-वह दृष्टि जो प्रशस्त हो।
सम्यग्दर्शन का लक्षण-तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन को पारिभाषिक शब्द माना है तथा लक्षण करते हुए कहा है - 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् तत्त्वार्थश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। तात्पर्य यह है कि स्वरूप के अनुसार पदार्थों का जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है।
दर्शन का अर्थ श्रद्धान-दर्शन 'दृश्' धातु से निष्पन्न है और दृश् धातु का अर्थ है आलोक अर्थात् देखना। यह शङ्का हो सकती है कि दृश् धातु का 'श्रद्धान' अर्थ संगत नहीं है। समाधान किया जाता है कि धातु के अनेक अर्थ होते हैं अतः 'दृश्' धातु का आलोक अर्थ न करके श्रद्धान अर्थ किया गया है।
पुनः प्रश्न होता है कि दश धातु के प्रसिद्ध अर्थ को ग्रहण क्यों नहीं किया गया? अप्रसिद्ध अर्थ, 'श्रद्धान' का ग्रहण क्यों किया गया है?
रत्नत्रय मोक्षमार्ग है। मोक्ष का प्रसङ्ग होने से तत्त्वार्थश्रद्धान अर्थ ही संगत है। तत्त्वार्थों का श्रद्धानरूप जो आत्मपरिणाम होता है वही मोक्षसाधन है, क्योंकि वह भव्यजीवों में ही पाया जाता है। जबकि आलोक, चक्षु आदि के निमित्त से होता है, जो सभी संसारी जीवों में साधारणरूप से पाया जाता है, अतः उसे मोक्षमार्ग नहीं मान सकते हैं।
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