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शिक्षा और सम्यग्दर्शन
- पुखराज मोहनोत शिक्षा को समर्पित रहे श्री मोहनोत ने अपनी लेखनी से यह अभिव्यक्त किया है कि शिक्षा के क्षेत्र में भी सम्यक् दृष्टिकोण की आवश्यकता है । बिना सम्यक् दृष्टिकोण के उच्च शिक्षा भी पागलों का प्रलाप मात्र है।-सम्पादक जीवन की सार्थकता
जन्म और मरण, इन दो चिरन्तन सत्य बिन्दुओं के मध्य जो जीवन है-वही जन्म-मरण का कारणभूत है और वही जन्म-मरण को मिटाने, सदा-सदा के लिए अमरत्व पाने, चरम और परम लक्ष्य मुक्ति को मिलाने का भी कारणभूत है। जीवन-सरिता के दो किनारे हैं-जन्म व मरण। जिसने भी जीवन-सरिता की धारा के प्रवाह को सही दिशा में मोड़ा और मर्यादा में बंधा रहा, उसका यह किनारा अर्थात् जन्म भी सार्थक है और वह किनारा अर्थात् मरण भी सार्थक बन सकता है। ज्ञान : जीवन जीने की कला ___ जीवन की धारा सही दिशा में बहे, इसके लिए ज्ञान चाहिए और वह मर्यादित रहे इसके लिए संयम (क्रिया) चाहिए। ज्ञान का कार्य है जानकारी देना और जागृत करना । ज्ञान ही वह शक्ति है जो व्यक्ति को, परिवार को, समाज को, राष्ट्र को और विश्व को सत्य-पथ पर अग्रसर कर सभ्यता एवं संस्कृति के प्रत्येक पक्ष को उज्ज्वल बनाती है। ज्ञान जीवन जीने की कला है। __ ज्ञान और दर्शन दो भिन्न तत्त्व हैं। ज्ञान का परिवर्तन मिथ्याज्ञान और अज्ञान में संभाव्य है । जो जानकारी हमें प्राप्त है उस पर यदि विश्वास नहीं, आस्था नहीं, श्रद्धा नहीं तो वह ज्ञान निरर्थक है, मिथ्या है। सत्य-तथ्य की जानकारी होते हुए भी शंका, आशंका, संदेह, भ्रम के झूलों में झूलने वाला व्यक्ति अन्धकार में भटकता हुआ मिथ्यातम के गहनगर्त में उतर सकता है।
आज की शिक्षा में जीवन-निर्माण-कला का ह्रास __ज्ञान के लिए आज शिक्षा पर विशेष बल दिया जा रहा है। नगरों में तो गली-गली में ककरमत्तों की तरह ज्ञानशालाएं, शिक्षण शालाएं या पाठशालाएं खली ही हैं किन्तु ग्राम भी उनसे अछूते नहीं रहे हैं। शिक्षा के प्रचार और प्रसार का आज सर्वत्र बोलबाला है। इतना सब होते हुए भी शिक्षा में जीवन-निर्माण की शक्ति का ह्रास हो रहा है। शिक्षा भौतिकता के क्षेत्र में तो कुलांचे भर रही है पर नैतिकता और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में उसका योगदान निरन्तर घटता जा रहा है। ऐसा क्यों है? ___ आज की शिक्षा ने क्यों पेट, शरीर और परिवार को प्रधानता दी? क्यों यह शिक्षा मात्र अर्थप्रधान ही नहीं बनी, अपितु स्वयं अर्थ के लिए ही, अर्थ के उद्देश्य से ही मानव-जीवन में उतरने लगी? क्यों इस शिक्षा से सद्विचार और सदाचार का नाता टूटता चला गया? कारण है श्रद्धा की कमी, विश्वास और आस्था का हिलना, दृष्टि में अंतर आना । जैन दर्शन में श्रद्धा-विहीन ज्ञान को अज्ञान की संज्ञा दी गई है।
* सेवानिवृत्त व्याख्याता, हिन्दी, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, तखतगढ़ (पाली) एवं जिनवाणी' के सम्पादक-मण्डल के सदस्य।
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