________________
जिनवाणी- विशेषाङ्क
३२२
सम्यक् दृष्टि है तो ज्ञान, मिथ्या दृष्टि है तो अज्ञान
उपयोग बारह होते हैं । इन बारह उपयोगों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के साथ ही मति अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अवधि - अज्ञान (विभंग ज्ञान) भी हैं। क्या अंतर है यहां ज्ञान और अज्ञान में। अंतर है दृष्टि का, जहां सम्यक् दृष्टि है वहां ज्ञान है, जहां मिथ्यादृष्टि है वहां ज्ञान भी अज्ञान ही है। अच्छी से अच्छी वस्तु है पर वह बुरे हाथों में है तो परिणाम बुरा ही होना है। शराब के लेबल लगी बोतल में दूध, घी, मधु कुछ भी डाल दीजिए, एकबारगी लेबल देखकर तो उसे शराब ही माना जाएगा । केवल नहीं जानना ही अज्ञान नहीं है अपितु कुत्सित जानना भी अज्ञान ही है आज की शिक्षा और शिक्षा-प्रणाली दोनों में ही कुत्सित रूप का स्पष्ट भास होता है जीवन-निर्मात्री शिक्षा आज अर्थ-निर्मात्री मात्र बनकर रह गयी है । नींव से लेकर सर्वोपरि मंजिल के कंगूरों तक शिक्षा-मंदिरों में केवल पैसा, नौकरी, एवं अर्थ ही उद्देश्यों का निचोड़ बन गया है । यथार्थ और सम्यक् दृष्टि का शिक्षा जगत् से जैसे नाता ही टूट गया है । इन हालातों में हम जिस विषय अर्थात् सम्यग्दर्शन की चिन्तना कर रहे हैं, उसे तो शिक्षा के सागर में पाना असंभव बन गया है 1
1
1
I
घर-परिवार और शिक्षा
कहते हैं बालक की प्रथम शिक्षिका उसकी मां है और प्रथम शिक्षाशाला उसका घर है। पूर्व भव के संस्कार जो साथ में हैं जन्म से, उनकी बात छोड़ दें तो वर्तमान में · माता-पिता की दृष्टि संस्कारों पर कम, जगत्-व्यवहार पर अधिक टिकी है । अव्वल में तो अधिकांश माता-पिता अपने व्यस्त समय में से बच्चों के लिए समय निकाल ही नहीं पाते। खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाजों में सामाजिक स्तर को एक-दूसरे से आगे ले जाने की दौड़ में होड़ लगाते हुए वे भूल जाते हैं कि आज हम बालक के समक्ष जिस तरह अपने आप को पेश कर रहे हैं, बालक का चैतन्य उसे देख, परख रहा है और वही उसकी रगों में उतर रहा है । शिक्षा के इस सर्वप्रथम सोपान में ही न तो सही दृष्टि बन पाती है और न श्रद्धा का वह अक्ष बन पाता है, जो बनना चाहिए । शिक्षा से जीवन-निर्माण
स्व. आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. ने आज से लगभग १० - ११ वर्ष पूर्व जोधपुर संभाग के शिक्षकों की संगोष्ठी में दिनांक २५ सित. १९८५ को शिक्षा संबंधी अपने उद्बोधन में कहा था
'आज शिक्षा में जीवन-निर्माण की बात गौण हो गई है, शिक्षा अर्थ - प्रधान रह गयी है । हम इस बात को आज की शिक्षा-प्रणाली में स्पष्टतया देख रहे हैं । वकालात की शिक्षा है तो बात चाहे सच्ची हो या झूठी पर उसे कैसे सच्ची साबित करना, अपने पक्ष की पुष्टता के लिए किस पाइन्ट पर क्या बोलना, क्या लिखना, कैसे सवाल-जवाब करना; यह सब सिखाया जाता है । इसमें सत्य का कितना हनन हो रहा है इस पर गौर करने का सबक नहीं सिखाया जाता। वकील होकर वह शिक्षार्थी अपने पक्षकार की पैरवी इस ढंग से करेगा कि उसका पक्ष मजबूत बने, भले ही इससे सत्य का हनन होता हो । क्या यही शिक्षा है ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org