Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 353
________________ ३३६..................... जिनवाणी-विशेषाङ्क एकांगी दृष्टि से सही निर्णय नहीं किया जा सकता। एक ही क्रिया को करने वाले दो व्यक्तियों के परिणामों की धारा अलग-अलग होने से एक उसमें कर्म बन्धन कर लेगा, दूसरा उसी क्रिया से कर्म निर्जरण कर लेगा। आचार्य अमितगति ने योगसार में कहा है अज्ञानी वध्यते यत्र, सेव्यमानेऽक्षगोचरे। तत्रैव मुच्यते ज्ञानी, पश्यतामाश्चर्यमीदृशम्॥ बन्धन और मुक्ति के हेतु अलग-अलग नहीं, एक ही होते हैं। दृष्टिकोण के भेद से मिथ्यात्वी के जो बन्धन का जिक्र है वही सम्यक्त्वी के मुक्ति का हेतु है। जिस व्यक्ति को सम्यक्त्व की उपलब्धि हो जाती है उसकी आस्था सही होती है, ज्ञान सम्यक् होता है और आचरण की पवित्रता सधने लगती है। चक्रवर्ती भरत के बारे में भगवान् ऋषभ की उद्घोषणा हुई कि भरत इसी भव में मुक्त होगा। लोगों ने उपहास किया। अपने पुत्र के बारे में पिता कुछ भी कह सकते हैं। भरत ने सुना। उस व्यक्ति को बुलाया और मृत्युदण्ड सुना दिया। उसने बहुत अनुनय विनय किया। सजा में परिवर्तन हुआ। कहा गया कि तैल से लबालब भरे कटोरे को लेकर पूरे नगर में घूम कर आओ। सशस्त्र प्रहरी तुम्हारे साथ रहेगा। यदि एक भी बूंद तेल नीचे गिरा तो तत्काल धड़ से सिर अलग कर दिया जायेगा। वह व्यक्ति गया और घूम कर आ गया। आते ही चक्रवर्ती भरत ने पूछा-नगर में घूम आए? क्या-क्या देखा? उसने कहा-महाराज ! कुछ भी नहीं देखा। मुझे तो हर क्षण मृत्यु दिखाई दे रही थी। पूरा ध्यान इस तैल के कटोरे पर केन्द्रित था। भरत ने कहा-एक भव की मृत्यु का डर तुम्हें इतना जागृत कर सकता है, भला जो स्व-पर की भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान की अनेक पर्यायों को जानता हो, वह कितना जागरूक होता है। सचमुच इसी स्थिति में पहुंच कर 'सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता' इस वाक्यांश के मर्म को समझा जा सकता है। अन्यथा सब कुछ काल्पनिक लगता है। चक्रवर्तित्व का भोग करते हुए भी सम्यक्दर्शी भरत जलकमलवत् थे। पापकर्म में लिप्त नहीं होते थे। जीया जाने वाला हर क्षण जागरूकता का क्षण था। 'समत्तदंसी ण करेति पावं' एक परिणाम वाक्य है। इससे पूर्व सत्रकार कहते हैं-जातिं च वुद्धिं च इहज्ज ! पास'। जन्म और वृद्धि को देख। अपने पूर्व जन्मों के विषय में चिन्तन करे कि मैं एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में तथा नरक, तिर्यंच, देव आदि योनियों में अनेक बार जन्म लेकर फिर मनुष्य लोक में आया हूँ । उन जन्मों में कितना दुःख सहा है। साथ में यह भी जानें कि कितनी विपुल निर्जरा व पुण्य का संचय भी किया होगा, जिसके फलस्वरूप एकेन्द्रिय से विकास करते हुए इस मनुष्य योनि में आया हूँ। पुण्याई भी कितनी अधिक की गई कि जिससे मनुष्य लोक, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेन्द्रिय-पूर्णता, उत्तम संयोग, दीर्घ आयुष्य और श्रेष्ठ संयमी जीवन पाकर यह जीव इतनी उन्नति कर पाया है। यह चिन्तन पाप में संभागी होने से बचाता है। दूसरा विचारणीय वाक्यांश है-'भूतेहिं जाण पडिलेह सायं' संसार के समस्त जीव जो चौदह भेदों में विभक्त हैं उन्हें जाने, उन प्राणियों के साथ अपने सुख की तुलना करे। जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही संसार के सब प्राणियों को सुख प्रिय है। ऐसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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