________________
सम्यग्दर्शन और कषाय विजय
= सम्पतराज डोसी सम्यग्दर्शन एवं मोह का सम्बन्ध . यह विशेषांक सम्यग्दर्शन के अर्थ, व्याख्या, भेद-प्रभेद आदि विविध प्रकार की सामग्री से तो युक्त है ही इसलिए यहां सम्यग्दर्शन के साथ मोह एवं उसके प्रमुख भेद राग व द्वेष अथवा क्रोध, मान, माया एवं लोभ का कितना और कैसा सम्बन्ध है तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अथवा मोह एवं कषाय की कमी अथवा इनके पूर्ण क्षय से प्रत्येक प्राणी के व्यावहारिक जीवन में कैसी शांति प्राप्त होती है इस विषय में यत् किंचित् चिंतन प्रस्तुत किया जा रहा है। सम्यग्दर्शन व्यवहार हो या निश्चय, द्रव्य हो या भाव, उपशम हो या क्षायिक आदि ये सब कार्य रूप हैं और मोह एवं कषाय की आंशिक कमी, उपशम या क्षय आदि इसके प्रमुख कारण हैं। जिस प्रकार घड़े रूप कार्य के लिए मिट्टी प्रमुख कारण है तथा कपड़े रूप कार्य में तंतु मुख्य कारण है, बिना मिट्टी के घड़ा और बिना तंतु के कपड़ा नहीं बन सकता, ठीक उसी प्रकार कषाय एवं मोह की कमी या क्षय आदि के बिना सम्यग्दर्शन की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शन का भावार्थ
आगमों में सम्यग्दर्शन के लिये स्थान-स्थान पर 'सम्मदिट्ठी' शब्द का प्रयोग मिलता है। 'सम्मा' या 'सम्म' शब्द का मुख्य अर्थ होता है-सम्यक् । हालांकि ‘सम्म' का सीधा अर्थ सत्य नहीं होता फिर भी सम्यग्दर्शन के विलोम शब्द को मिथ्या दर्शन कहते हैं और उसके लिये आगमों में 'मिच्छादिट्ठी' शब्द का प्रयोग हुआ है और मिथ्या एवं 'मिच्छा' शब्द का अर्थ असत्य होता है इसलिये 'सम्म' का अर्थ सत्य भी मानना उचित है। 'दर्शन' शब्द का अर्थ विचारधारा, मान्यता, देखना अथवा विश्वास आदि होता है। 'दर्शन' के लिये आगमों में 'दिट्ठी' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका प्रमुख अर्थ दृष्टि, देखना अर्थात् आत्मा से आत्मा को देखना या आत्मा की अनुभूति से सत्य का श्रद्धान करना है। उपर्युक्त अर्थों से सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची शब्दों के रूप में सही या सत्य मान्यता' या विचारधारा, 'आत्मदर्शन' 'स्वरूप दर्शन' 'सद्दर्शन' 'शाश्वत सत्य' आदि अनेक गुणसूचक नाम व अर्थ कहे जा सकते हैं। दुःख एवं अशांति का मूल : मिथ्यादर्शन
संसार में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, रोग, शोक, वियोग अथवा जन्म, जरा, मृत्यु आदि जितने भी प्रकार के दुःख हैं उन सभी दुःखों का मूल एवं वास्तविक कारण प्राणी के स्वयं का दृष्टि -दोष अर्थात् गलत विचारधारा या मिथ्या दर्शन है। यह दोष प्राणी की समझ में न आने के कारण उसकी समझ विपरीत होती है और इसके फलस्वरूप उसका सारा आचरण, अथवा साधना भी विपरीत हो जाती है जिससे प्राणी सुख चाहते हुए और सुख के लिये अनन्त जन्मों तक प्रयत्न करते हुए भी इन दुःखों से मुक्त होकर सच्चे सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। मिथ्यात्व का मूल : मम एवं अहम् ___ अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त शांति, अनन्त शक्ति आदि सभी गुण प्रत्येक प्राणी में रहे हुए हैं। स्वयं की अन्तर आत्मा में ये गुण अप्रगट रूप से * उपाध्यक्ष,सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल,जयपुर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org