Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 308
________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार २९१ प्रति मोह कैसा? उसके संग्रहण का प्रयत्न क्यों? भगवान महावीर ने कहा कि धन-अर्जन में भी दुःख, संग्रहण व संरक्षण में भी दुःख और इसके जाने पर भी दुःख होता है। जिस भी पदार्थ के प्रति हमारा राग या मोह है उसके अर्जन, संरक्षण व वियोग पर दुःख होगा ही। यदि राग-द्वेष भाव न रहे तो उनके आने पर या जाने पर दुःख नहीं होगा। अनित्य है, नश्वर है यह जानकर स्थिति को यथाभूत स्वीकार करना ही हमारी प्रवृत्ति बनेगी। गुजरात के प्रसिद्ध कवि व सन्त श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में हमारी प्रवृत्ति इस प्रकार बने मेरा है सो जावे नहीं, जावे सो मेरा नहीं। यह भेदज्ञान, कि जो चीज जा रही है वह मेरी हो ही नहीं सकती है और जो चीज मेरी नहीं है वह जा ही नहीं सकती, जीवन की पूरी दृष्टि बदल देता है। जो नश्वर है वह जायेगी और जो सत् है वह न नष्ट होगी और न जायेगी। जीव और परमाणु पुद्गल के आपसी संयोग-वियोग में जीव-तत्त्व सत् एवं अनश्वर है तथा परमाणु पुद्गल का संयोग पर्याय और गुण से बदलता रहता है। इस परिवर्तन को सही रूप से जानें तो दुःखी होने का कोई कारण नहीं। लेकिन जब सम्यक् रूप से नहीं जानते हैं तो परिवर्तन से अच्छी संवेदना मिलती है तो सुखी महसूस करते हैं और बुरी संवेदना मिलती है तो दुःखी महसूस करते हैं। परन्तु इन संवेदनाओं के प्रति यदि स्थितप्रज्ञ होकर केवल द्रष्टाभाव की स्थिति प्राप्त करें तो इन परिवर्तनों से 'न सुख, न दुःख' की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। यह स्थिति ही हमारे राग-द्वेष के प्रतिक्रियापूर्ण जीवन के चक्र को समाप्त कर सकती है। तब हम सक्रिय होकर अपने तरीके का जीवन जी सकते हैं। हमारा सुख बाहर की वस्तु पर आधारित न होकर हमारे अपने अन्तर पर आधारित होगा। बाह्य वस्तुओं यथा धन, जन, पद, यश, प्रशंसा आदि के आने से व्यक्ति न सुखी महसूस करेगा और न इनके जाने से दुःखी महसूस करेगा। यदि ये उपस्थित हैं तो हैं, और यदि नहीं हैं तो नहीं। इन्हें केवल खेल और नाटक मानकर स्वीकार करें तो जीवन सरल एवं सुखी बन जायेगा। शेक्सपीयर ने कहा है 'यह जगत् एक मंच है और हम सब नाटक के पात्र हैं।' हर पात्र को एक या अनेक भूमिकाएं मिली हैं। उन भूमिकाओं को दक्षता से निभाना ही हमारा कर्तव्य है। हम अपनी भूमिका को सही रूप से न निभाकर अन्य पात्र की भूमिका की ओर ललचायी आंखों से देखें और कहें कि हमें वह भूमिका मिली होती तो ज्यादा अच्छा रहता, जो वर्तमान भूमिका मिली है वह अच्छी नहीं है तो हम जीवन भर दुःखी रहेंगे और नाटक के अनचाहे पात्र बन जायेंगे। हम जो है उसको सही रूप से जीयें और अपनी दक्षता दिखायें तो सफल व सुखी पात्र बन सकते हैं। जीवन के प्रति यह द्रष्टा भाव उत्पन्न हो तो व्यवहार में पूर्णत: परिवर्तन आयेगा। तब हर परिस्थिति में हम सहज व सुखी प्रतीत होगें और दुःख नाम की चीज ही नहीं रहेगी। हम हर स्थिति में खुश हैं। कोई प्रशंसा करे तो भी खुश हैं और कोई निन्दा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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