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सम्यग्दर्शन : जीवन- व्यवहार
हम केवल दुःख मानते और भोगते हैं । दुःख हुआ तो उसका कारण बाहरी वस्तुओं या व्यक्तियों में ढूंढते हैं और उनको दूर करने में लगते हैं । परन्तु जिसने सही रूप से दुःख को जाना, वे जानते हैं कि दुःख हमारी अनुभूति में राग-द्वेष पर आधारित है । जिसने दुःख को सही रूप से जाना वह जान जायेगा कि इसका कारण क्या है, और निवारण क्या है। जिसने सही रूप से जाना नहीं वह कारण व निवारण ढूंढ नहीं सकता और न ही निवारण का उपाय ही कर सकता है । अतः दुःख को भोगने की बजाय जानना अधिक महत्त्वपूर्ण है । जो भोगता है व बंधता है और जो जानता है वह छूटता है 1
दर्शन या दृष्टि का भेद ही हमारे जीवन की सारी गतिविधियों को बदल देता है । शिष्य गुरु से पूछता है
ग्यानवंत को भोग निरजरा हेतु है । अज्ञानी को भोग बंधफल देतु है ॥ यह अचरज की बात हिये नहीं आवही । पूछै कोऊ सिष्य गुरू समझावही ॥
तब गुरु उत्तर देते है
यानी मूढ़ करम करत दीसै एकसे पै, परिनाम भेद न्यारो न्यारो फल देतु है । ग्यानवंत करनी करै पै उदासीन रूप, ममता न धेरै तातै निर्जरा का हेतु है । वह करतूति मूद करै पै मगनरूप, अंध भयौ ममतासौ बंध फल लेतु है ।
बाह्य कार्य को करने में सम्यग्ज्ञानी और मिथ्यात्वी एक से दिखते हैं, परन्तु उनके भावों में अन्तर होने से फल भी भिन्न-भिन्न होता है। ज्ञानी की क्रिया विरक्तभाव सहित और अहंबुद्धि रहित होती है इसलिए निर्जरा का कारण है, और वही क्रिया मिथ्यात्वी जीव विवेकरहित तल्लीन होकर अहंबुद्धिपूर्वक करता है इसलिए बन्ध और उसके फल को प्राप्त होता है 1
एक ही काम दो व्यक्ति करें, परन्तु दोनों का फल अलग-अलग होगा । ज्ञानी या सम्यक्दर्शी के लिए वह कार्य निर्जरा का कारण बनेगा और वही गैर व्यक्ति को बंध का कारण बनेगा। सम्यग्दर्शी उस कार्य को यथाभूत भाव से करता व देखता है जबकि अज्ञानी उसको अहंभाव या कर्ताभाव से देखता है । अतः हमारी दृष्टि ही हमें बांधती या मुक्त कराती है । कार्य हम सब करते हैं, बिना कार्य के हम रह नहीं सकते । परन्तु जो कार्य अहंभाव या ममता या राग-द्वेष से किये जाते हैं वे हमें बांध हैं और जो राग-द्वेष रहित ममतारहित होकर यथाभूत भाव से किये जाते हैं वे हमें मुक्त कराते हैं । अर्थात् नई प्रतिक्रिया को रोककर पूर्व संचित संस्कारों को समाप्त कराते हैं। यही हमारे जीवन को सुखकारी बनाता है और अनन्त आनन्द की प्राप्ति
है।
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