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जिनवाणी-विशेषाङ्क साधना के लिए किसे आदर्श माना जाए? उपास्य बनने की क्षमता किसमें है? ऐसे निर्णायक ज्ञान का अभाव ही देवमूढ़ता है। इस मूढ़वृत्ति के कारण साधक गलत आदर्श और उपास्य का चयन कर लेता है। लोकप्रवाह और रूढ़ियों का अंधानुकरण लोकमूढता है। 'समय' सिद्धांत और शास्त्र का वाचक माना जाता है और इनके ज्ञान का अभाव समय-मूढता है। ये तीनों मूढताएँ समाज-व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर सकती हैं।
सम्यक् समाज-व्यवस्था के लिए व्यक्ति को सही आदर्श या उपास्य का चयन करना चाहिए, शास्त्र और सिद्धांत का समुचित ज्ञान रखना चाहिए तथा रुढ़ियों को अपनाने के पूर्व उन पर तर्कपूर्ण ढंग से विचार कर लेना चाहिये।
५. उपबृंहण - सम्यक् आचरण को अपनाए हुए व्यक्तियों की प्रशंसा करना और उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ाने का प्रयत्न उपबृंहण कहलाता है। दशवैकालिकवृत्ति में उपबृंहण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि साधर्मी बन्धुओं के समीचीन गुणों की प्रशंसा के द्वारा उन्हें बढ़ाने को उपबृंहण कहा जाता है। यह अवधारणा व्यक्ति में आध्यात्मिक गुणों के विकास में सहायक मानी गई है साथ ही यह व्यक्ति के आध्यात्मिक पक्ष की ओर रुचि की भी परिचायक है। आध्यात्मिक प्रवृत्ति का विकास और उसमें रुचि रखना बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। आध्यात्मिक वृत्ति वाला व्यक्ति नैतिक आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करता है। किसी भी समाज के लिए नैतिक आदर्श एक मापदंड का कार्य करता है। इसे समाज-व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु भी कहा जा सकता है।
६. स्थिरीकरण - धर्ममार्ग से पतित होने पर पुनः धर्ममार्ग पर आरूढ़ होना स्थिरीकरण है। व्यक्ति के समक्ष कभी ऐसे प्रसंग आ जाते हैं कि उसे अपने पथ से पथभ्रष्ट होना पड़ता है। यह स्थिति प्राकृतिक रूप में भी उपस्थित हो सकती है अथवा इसके कृत्रिम कारण भी हो सकते हैं। ऐसे प्रसंग उपस्थित हो जाने पर स्वयं को पथभ्रष्ट होने से बचाने एवं जो पथच्युत हो गए हैं उन्हें पुनः सन्मार्ग पर लाना और धर्ममार्ग में स्थिर करना ही स्थिरीकरण है। अपने आपको पथच्युत नहीं होने देना एक कठिन कार्य है और किसी कारण से व्यक्ति दिग्भ्रमित हो गया है तो पुनः सम्यक् मार्ग पर लाना और भी कठिन होता है। क्योंकि व्यक्ति सन्मार्ग से कुमार्ग पर जब चला जाता है तब उसके विवेक एवं बुद्धि पर आवरण पड़ जाता है। लेकिन स्थिरीकरण गुण से युक्त सम्यगदृष्टि ऐसा कर पाता है। सम्यग्दृष्टि का यह गुण समाज-व्यवस्था के लिए बहुत अधिक उपयोगी हो सकता है। समाज में ऐसे कई कारण मनुष्य के समक्ष उपस्थित होते रहते हैं जो उसे पथभ्रष्ट करने में सक्षम माने गए हैं। सम्यग्दृष्टि साधक इन परिस्थितियों में धर्ममार्ग में पतित होने से अपने आपको बचाने का शक्तिभर प्रयत्न करता है, तथा दूसरों को भी सन्मार्ग में स्थिर करता है।
७. वात्सल्य - धर्म का आचरण करने वाले समान गुणशील साथियों के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार करना एवं प्रेमभाव रखना वात्सल्य है। आचार्य कार्तिकेय वात्सल्यभाव पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि स्वधर्मियों एवं गणियों के प्रति परम श्रद्धा पूर्वक प्रीति रखना और उनकी यथोचित सेवा-शुश्रूषा करना, उनसे प्रिय वचन
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