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जिनवाणी- विशेषाङ्क
अरिहंत और सिद्ध मुख्य आराध्य देव माने गए हैं। उन्हें जिन भी कहा गया है । जिन - वचन के रूप में सिद्धांत और ग्रंथ दोनों मिलते हैं । इन सिद्धान्तों और ग्रंथों पर श्रद्धा करना तथा इनमें प्रतिपादित धर्ममार्ग का अनुसरण करना भी आस्तिक्य भाव का बोध माना जा सकता है । इस कारण व्यक्ति के मन में नैतिकता का संचार होता है ।
समाज-व्यवस्था के लिए नैतिकता आवश्यक है, क्योंकि इसके अभाव में व्यवस्था दुर्व्यवस्था में बदल जाती है । व्यवस्था नियम से परिचालित होती है और आस्तिक्यवृत्ति वाला व्यक्ति नियमों की अवहेलना नहीं करता है, क्योंकि वह जिनप्रणीत वचन में आस्था रखने के साथ-साथ भौतिक जगत् की व्यवस्था को भी मानता है । आस्तिक्यवृत्ति की विशेषता बताते हुए कहा गया है " जीवादि पदार्थ यथायोग्य अपने स्वभाव से संयुक्त हैं, इस प्रकार की बुद्धि ही आस्तिक्य बुद्धि कहलाती है।
सम्यग्दर्शन के आचार और समाज-व्यवस्था
सम्यग् दर्शन दर्शन - विशुद्धि की साधना है । इसकी साधना से व्यक्ति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकता है । वह मिथ्या अवधारणाओं से अपने आपको मुक्त कर सकता है । जैन - परम्परा में सम्यग्दर्शन की साधना के लिए ८ आचारों या अंगों पर प्रकाश डाला गया है - १. निःशंकित, २. निष्कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढदृष्टि, ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण, ७. वात्सल्य और ८ प्रभावना । दिगम्बर आम्नाय (अथवा यापनीय संप्रदाय) के प्रसिद्ध ग्रंथ मूलाराधना में उपबृंहण ( उववूह) की जगह उपगूहन (उवगूहण) शब्द का प्रयोग किया गया है । १० सम्यग्दर्शन के इन अंगों की साधना दर्शन-विशुद्धि एवं उसके संरक्षण और संवर्द्धन के लिए आवश्यक मानी गयी है ।
१. निश्शंकता - संशय की वृत्ति का अभाव निश्शंकता है । संशय से ग्रस्त व्यक्ति अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है, कारण कि अपनी शंका के वशीभूत होकर वह किसी भी विषय पर दृढ़ नहीं रह पाता है । निश्शंकता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिनागम में वर्णित तत्त्व - दर्शन में शंका नहीं करना तथा जिनदेव ने जो कहा है वही सत्य है ऐसी दृढ़ आस्था रखने वाला व्यक्ति निश्शंक कहलाता है । ११ व्यक्ति के मन में रहने वाली दृढ़ता उसे उसके मन में उठने वाले द्वैतभाव के निराकरण में सहयोग करती है । वह निर्भीकता पूर्वक जीवन में आने वाली समस्याओं का सामना भी करता है और उसे हल भी कर लेता है । अतः निर्भीकता को निश्शंकता का गुण भी माना जा सकता है । आचार्य वट्टकेर ने निश्शंकता और निर्भयता को समान माना है । १२
मनुष्य के सामाजिक जीवन में विभिन्न तरह की समस्याएं आती हैं । उसे इन समस्याओं का सामना निर्भीक होकर करना पड़ता है, अन्यथा वह अपने जीवन की रक्षा नहीं कर पाएगा। सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मनुष्य में विश्वास का भाव होना अनिवार्य है, क्योंकि सामाजिक-व्यवहार विश्वास और आस्था के सहारे चलता है । शंका की वृत्ति व्यवहार को नहीं चलने देती है। परिणामस्वरूप
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