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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार सामाजिक-व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो सकती है।
२. निष्कांक्षता - जो सभी प्रकार के सुखों और सुख प्रदान करने वाली वस्तुओं की अभिलाषा नहीं करता है, वह निष्कांक्षित सम्यग्दृष्टि कहलाता है।१२ निष्कांक्षित व्यक्ति आत्म-केन्द्रित साधना को अपना लक्ष्य बनाता है। वह लौकिक अथवा परलौकिक कामना के वशीभूत होकर सम्यक्त्व की आराधना अथवा साधना नहीं करता है। वह अनासक्त भाव से अपनी साधनावृत्ति में रत रहता है। कामना या अभिलाषा, राग-द्वेष के मूल कारण माने गए हैं तथा इनसे मिथ्यात्व का उदय होता है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही प्रकार की इच्छाओं से मुक्त रहकर सम्यक्त्व की साधना करने का निर्देश दिया है। जैनग्रंथों में निष्कांक्षता का एक अर्थ ऐकान्तिक मान्यताओं से दूर रहने के लिए भी हुआ है।५ निष्कांक्षता का यह अर्थ व्यक्ति में अनाग्रह दृष्टि उत्पन्न करता है। व्यक्ति अपनी मान्यताओं के साथ-साथ अन्य मान्यताओं के प्रति आदरपूर्ण दृष्टि रखता है। उसकी यह वृत्ति समाज-व्यवस्था में होने वाले वैचारिक संघर्षों को काफी कम कर देती है। जिस समाज में जितना ही कम संघर्ष होगा वह उतना ज्यादा विकास कर सकता है। अतः अनासक्त और अनाग्रहवृति जो कि निष्कांक्ष व्यक्ति का गुण है समाज-व्यवस्था के लिए परम उपादेय हो सकता है।
३. निर्विचिकित्सा - जैन परम्परा में विचिकित्सा संमोह (अस्थिर वृत्ति) अवस्था का परिचायक है। उसकी यह अस्थिर वृत्ति धारण किए गए व्रत तथा आगम में पूर्ण आस्था नहीं रखने के कारण उत्पन्न होती है। व्यक्ति हमेशा नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकाकुल बना रहता है। यह शंका उसे आत्म-विकास के पथ पर आगे नहीं बढने देती है । इसका परित्याग निर्विचिकित्सा है ।
बाह्यावरण की चमक से प्रभावित न होना तथा आंतरिक गुणों को श्रेष्ठ मानकर उनके प्रति आस्थावृत्ति रखना भी निर्विचिकित्सा है। आचार्य कुंदकुंद का उस संबंध में कहना है “मनुष्य शरीर यद्यपि स्वभाव से अपवित्र है, फिर भी चूंकि रत्नत्रय की प्राप्ति का कारण वह मनुष्य शरीर ही है, अतएव रत्नत्रय से पवित्र मुनि आदि के शरीर में घृणा को छोड़कर गुण के कारण प्रीति करना निर्विचिकित्सा है"।१५ प्रायः व्यक्ति बाह्य चमक से प्रभावित होकर आभ्यन्तर गणों को भूलने लगता है। यह व्यक्ति की बहुत बड़ी भूल मानी जाती है। सामाजिक व्यवस्था के लिए मानव के आंतरिक गुण दया, अनुकंपा आदि के साथ घृणा के त्याग रूप निर्विचिकित्सा भी आवश्यक निर्विचिकित्सा अंग मनुष्य में मानवीय प्रेम एवं आपसी सहयोग की प्रेरणा देता है।
४. अमूढदृष्टि - मनुष्य में ज्ञान-अज्ञान, मूढ़-अमूढ़ दोनों ही प्रकार के भाव पाए जाते हैं। अज्ञानता या मूढ़ता के कारण व्यक्ति हेय और उपादेय, योग्य अथवा अयोग्य के मध्य निर्णायक स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता है। व्यक्ति की अज्ञानता उसे सन्मार्ग अथवा कुमार्ग के अन्तर को समझने नहीं देती है। पं. आशाधर ने अपने ग्रंथ अनागार धर्मामृत में मूढ़ता पर प्रकाश डालते हुए उसके तीन प्रकार बताए हैं(क) देवमूढ़ता, (ख) लोकमूढ़ता और (ग) समयमूढ़ता।
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