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सम्यक् दृष्टि का संसार
__ डॉ. राजीव प्रचण्डिया संसार दुःखों का साम्राज्य है। यहां नाना प्रकार के दुःख हैं। जिनमें जन्म-मरण का दुःख सबसे बड़ा है । यथा 'दुक्खं च जाईमरणं वयंति ।' (उत्तराध्ययन सूत्र ३२/७) दुःखों के मूल में राग और द्वेष हैं। राग-द्वेष का प्रमुख कारण मोह है। मोहासक्त प्राणी रागी भी बनता है और द्वेषी भी। इस प्रकार सारा संसार मोह पर टिका है। मोही प्राणी ही बार-बार जन्म-मरण के आवर्तन में फंसता है। यथा 'मोहेण गब्भं मरणाइ एइ।' (आचारांग सूत्र ५/३) मोह मिथ्यात्व का पोषक है। यथार्थ स्वरूप के अवबोध में मिथ्यात्व सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है जिसके कारण संसारी जीव सदा दुःखी रहता है। संसार के प्रत्येक पदार्थ उसे सालते हैं। इस प्रकार विपरीत या उल्टी मान्यताओं अर्थात् मिथ्यापरक मान्यताओं से घिरे जीवन में आनन्द की अपेक्षा दुःख-द्वन्द्व का चक्रव्यूह चलता है। इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए सम्यक्त्व-शक्ति सर्वथा उपादेयी मानी गयी है। सम्यक्त्व में यथार्थता की प्रधानता रहती है। आत्म-प्रतीति का आधार सम्यक्त्व ही है। इस प्रकार हमारे सामने दो रूप बनते हैं एक सम्यकत्व तथा दूसरा मिथ्यात्व। इन्हीं पर आधृत संसार में दो प्रकार के प्राणी होते हैं-एक सम्यक्त्वधारी तथा दूसरे मिथ्यात्वधारी। मिथ्यात्वधारी वे होते हैं जिनकी दृष्टि, सोच तथा आचरण सब कुछ मोह-आसक्ति के शिकंजे में कसा या जकड़ा रहता है, जबकि सम्यक्त्वधारियों का संसार मोह से पूर्णतः निरावृत रहता है। कहीं, किसी भी प्रकार की चिपकन वहां नहीं पायी जाती है।
सम्यकदृष्टि जीव परकीय शक्ति या सत्ता को कर्तव्य रूप में स्वीकार नहीं करता है। उसके अनुसार प्राणी जहां स्वयं अपने कर्मों का कर्ता है वहीं वह अपने कृत कर्मों का भोक्ता भी है। आज अनेक व्यक्तियों के दिलों में नाना अंधविश्वास तथा रूढ़ियां छायी हुई हैं, जादू-टोने, जन्तर-मन्तर, झाड-फूंका तथा मन्नतें जैसी क्रियाओं के पल्लवन के मूल में भी आत्मशक्ति की अपेक्षा, परकीय शक्ति में आस्था या विश्वास का होना ही कारण है। यह प्रवृत्ति, मनुष्य में अकर्मण्यता की स्थिति को उत्पन्न करती है। यह शाश्वत सत्य है कि कोई भी किसी का न बिगाड़ सकता है और नहीं बना सकता है। जो कुछ बनता-बिगड़ता है वह सब व्यक्ति के स्वकर्मों से होता है । किसी भी कार्य के सम्पादन में दो ही शक्तियां प्रमुख होती हैं एक उपादान तथा दूसरी निमित्त । समस्त कर्म-कौशल इन्हीं दो पर अवलम्बित है। उपादान, व्यक्ति का स्वयं का होता है, निमित्त भी उसे तदनुरूप मिलता है। इससे व्यक्ति में निश्चिन्तता, आश्वस्तता तथा अभयता प्रकट होती है। दीनता-हीनता की अपेक्षा सम्यक् श्रम तथा स्वावलम्बन की भावना प्रदीप्त रहती है। ऐसा व्यक्ति आत्मनिर्भर, आत्मनिष्ठ तथा आत्मबल से आपूरित रहता है। वह पलायनवादी प्रवृत्ति को प्रश्रय नहीं देता है । संसार का सामना, समता से करता है।
सम्यक्दृष्टि जीव में फल की आकांक्षा कदापि नहीं होती है। वह तो निष्काम साधक की भांति कर्म करता है। निष्काम-साधना सर्वोत्तम मानी गयी है। यथा 'सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था।' (स्थानाङ्गसूत्र, ६/१) उसे यह ज्ञात है कि जैसा वह कर्म करेगा, उसे उसका फल वैसा ही मिलेगा। उसका सारा ध्यान फल पर नहीं कर्म पर टिका रहता है। कर्म से ही वह संसार से मुक्त हो सकता है और कर्म से ही वह संसार में आबद्ध भी। यह उसके विवेक और भेद-विज्ञान पर निर्भर करता है।
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