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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार..
२९५ रहेगी। सत्ता, संपत्ति-अधिकार, पद-परिवार सब यहीं छूट जायेंगे। इनमें से कोई भी मेरे साथ जाने वाला नहीं। यह जीव अकेला आया है और अकेला जायेगा, पर फिर भी इतनी आसक्ति, इतनी लालसा, इतनी कामना, इतनी तृष्णा से ग्रस्त है कि वह सोचता है कि संसार में जितना भी है सब मेरा हो जाये। इन सबका उपयोग में ही करूं। जितना भी सुख है वह मुझे ही मिले, किसी दूसरे को न मिले। कितने संकुचित स्वार्थ में व्यक्ति आज जकड़ रहा है । संक्लेश भाव इस कलियुग में बहुत ज्यादा है । एक माँ की गोद में खेले भाई-बहिन को दूसरा भाई सहयोग कर दे तो यह भाभी को पसन्द नहीं। यहाँ तक कि जन्म देने वाली माँ की सेवा बेटा करे या पास बैठकर बात भी करे, यह बहू को पसन्द नहीं। घर वालों से बढ़कर पीहर वाले अच्छे लगते हैं। कहीं-कहीं तो नौकर की रोटी सस्ती व माँ की रोटी महँगी लगती है। मित्रों को बुलाना, उनसे मिलना, उनके साथ घूमना-फिरना अच्छा लगता है, पर घर वालों के साथ उठना-बैठना बुरा लगता है। ऐसे मलिन भावों के रहने पर हमारी जप-तप साधना कैसे सफल हो सकती है। साधना तभी सफल होगी जब हम ऐसे विषम वातावरण व कलुषित भावों से बचेंगे। जिन गंदे विचारों से व मलिन भावों से हमारी आत्मा दुर्गति का मेहमान बने ऐसे भावों को दफना कर हमें साधना करनी है। हर क्षण जाग्रत रहकर चिंतन करें कि विषय-कषाय की यह कालिमा आत्मा को काली न बना दे। जहां-जहां से चिपकाव है, मोह है, आसक्ति है, लगाव है, मैं जितनी जल्दी हो सके उसे छोडूं व आत्म-भावों में रमण करूं ।यही साधना है, तपस्या है। - यह अज्ञानी जीव अपने ही अज्ञान से झठी मान्यता व मोह में फंसकर भटक रहा है। ये सारे ही संयोगी भाव हमें रुलाने व भटकाने वाले हैं। यह कैसा आश्चर्य कि यह चेतन अपने आपको ही नहीं जानता, नहीं मानता। जो जलने वाला है, जो गलने वाला है, जो छूटने वाला है, जो नष्ट होने वाला है, जो बनने व बिगड़ने वाला है उन्हें खूब मानता है, ममत्व करता है, उन्हीं में रचा-पचा रहता है। इस शरीर व शरीर से संबंधित सभी संयोगों के पीछे पागल बनकर वह रात-दिन चिंता-फिक्र करता रहता है। इस जीव ने सबको संभाला, सबकी चिंता की, पर अपने आपको भूल गया, यही सबसे बड़ा मिथ्यात्व है, यही अज्ञान है, इसी से हम दुःखी बनते हैं।
इस जीव ने जप-तप साधनाएं खूब की, पर धर्म का मर्म समझे बिना सारी साधनाएं की, इसीलिए कल्याण का मार्ग आज तक नहीं मिला । तप करके शरीर को सुखा दिया, कई प्रकार की तपश्चर्या की, आसन जमाया, ध्यान किया, शास्त्र कंठस्थ किये, सब कुछ किया, पर आत्मा का लक्ष्य नहीं किया। आत्मलक्ष्य के बिना सारी साधनाएं अधूरी हैं। मन को ज्ञान से बांधकर साधना करनी चाहिए। ज्ञान का बल ऐसा मिले कि संसार के कार्य करते हुए उनमें रस न आये। पर को अपना माना नहीं कि राग खड़ा हो जायेगा, द्वेष खड़ा हो जायेगा। इन्द्रियों का निग्रह कर मन को ज्ञान के खूटे से बांधना है । ज्ञान व ज्ञानी से बंधने पर धीरे-धीरे पर की आसक्ति अन्तर में से छूट जाती है।
कोई भी साधना तभी फलवती बन सकती है जब उसका अधिकारी योग्य हो। अनधिकारी के पास अच्छी से अच्छी साधना भी निस्तेज हो जाती है। जब तक मानवीय गुण हमारे जीवन में नहीं खिलते तब तक आध्यात्मिक जीवन का विकास नहीं हो सकता।
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