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जिनवाणी-विशेषाङ्क अच्छे हों, परन्तु उसमें पोटेशियम साइनाइड जैसा जहर मिला हो तो देखने, खाने आदि में अच्छा लगने पर भी काम तो जहर का ही करता है। इसी प्रकार अनुकूलता के सुख में भी प्रतिकूलता का दुःख छिपा ही रहता है। कवि ने भी ठीक ही कहा है
काम भोग प्यारा लगे, फल किंपाक समान।
मीठी खाज खुजावतां, पीछे दुःख की खान ॥ ___ इसी प्रकार हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पापों में भी रागादि छिपे होने से उनके कडुवे फलों का ज्ञान नहीं होता और मनुष्य इन पापों को खुशी-खुशी करता है। कहा भी है
जीव हिंसा करता थका, लागे मिष्ट अज्ञान।
ज्ञानी इमे जाने सही, विष मिलियो पकवान ।। तनाव स्वयं ही हिंसा है
क्रोध से तनाव या अशांति होती ही है। कोई भी व्यक्ति तनावग्रस्त हए बिना क्रोध नहीं कर सकता । जिस व्यक्ति पर क्रोध करते हैं उसे भी बरा लगता है। क्रोध में 'पर' की हिंसा के पहले स्वयं की हिंसा होती है यह तो फिर भी समझ में आ सकता है, परन्तु राग या अहं भी बिना तनाव या अशांति के हो ही नहीं सकते, इस रहस्य को अनुभूति के स्तर पर बहुत ही कम व्यक्ति समझ सकते हैं। राग आत्मा का रहस्यमय रोग
अधिकांश व्यक्ति प्रतिकूलता में होने वाले दुःख, अशांति एवं तनाव को तो समझ सकते है तथा अनुभूति होने से मान भी सकते हैं। प्रतिकूलताएं भी असंख्य प्रकार की होती हैं जैसे शारीरिक प्रतिकूलताओं में हजारों तरह के रोग होते हैं। एक भी रोग अनकल या अच्छा नहीं लगता। फिर वृद्धावस्था में शरीर के साथ मानसिक रोग भी हो जाते हैं। मरने का भय तो दुःख रूप लगता ही है। इसी प्रकार आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक आदि दुःख भी अनेकानेक प्रकार के होते हैं। परन्तु एक बात अवश्य है कि जैसे दुःख प्रतिकूल लगता है तो उसके विपरीत सुख भी अवश्य होता है और वह अनुकूल लगता है। जैसे मरना प्रतिकूलता है तो जीना अनुकूल अवश्य लगेगा ही। इसी प्रकार वियोग के विपरीत संयोग, अपमान के विपरीत सम्मान, हानि के विपरीत लाभ आदि भी अनुकूल होते हैं। जिस वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति की प्रतिकूलता हमें दुःख एवं तनाव का कारण लगती है उसी वस्त, व्यक्ति या परिस्थिति की अनकलता में हम सख अवश्य मानते हैं। उदाहरण के रूप में हमारे इष्ट व्यक्ति या वस्तु के संयोग में हम सुख मानते हैं और वियोग में दुःख मानते हैं। गहराई से चिन्तन करने पर समझा जा सकता है कि वियोग के दुःख की जड़ संयोग का सुख है। इसी प्रकार अपमान में व्यक्ति दुःखी होता है तो उसका कारण सम्मान में सुख समझना है। मूल समस्या यह है कि व्यक्ति प्रतिकूलता के दुःख से तो बचना चाहता है पर अनुकूलता के सुख के भोग को छोड़ना नहीं चाहता। इस समस्या का कारण है प्राणी के अनादि कालीन ममत्व व अहंत्व के दृढ़ संस्कार, जिसे एक शब्द में राग कहते हैं। इस राग के रहस्यमय रोग को छोड़ना जितना । कठिन नहीं उससे अधिक कठिन आत्मा के स्तर तक समझना एवं मानना है ।
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