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जिनवाणी- विशेषाङ्क
से समझ सकता है अतः उसका विवेचन भी अत्यन्त आवश्यक है । धर्म वास्तव में शांति से जीवन जीने की कला है जिसे प्रत्येक व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो या साधु, गरीब हो या धनवान, दुःखी हो या सुखी विद्वान् हो या सामान्य बुद्धि वाला, रोगी हो या नीरोग सभी समझ भी सकते हैं तथा पालन करके इसी जीवन में सच्चे सुख एवं शांति की अनुभूति कर सकते हैं ।
धर्म आत्मा का गुण एवं स्वभाव है
धर्म की अनेक व्याख्याएं हो सकती हैं परन्तु पूर्वाचार्यों ने आगम सम्मत व्याख्या करते हुए कहा 'वत्थुसहावो धम्मो' अर्थात् जिस वस्तु का जो स्वभाव अर्थात गुण है वह उस वस्तु का धर्म कहलाता है। जैसे पानी में शीतलता, अग्नि में उष्णता, सूर्य में प्रकाश आदि । इसी प्रकार संसार में मुख्य दो ही तत्त्व तथा द्रव्य हैं - एक जीव दूसरा अजीव अथवा एक चेतन, दूसरा जड़ । जीव तत्त्व के मुख्य दो भेद होते हैं शुद्ध जीव जिन्हें सिद्ध या परमात्मा कहते हैं और दूसरे संसारी जीव जिनके अनेक भेद होते हैं । इसी तरह अजीव या जड़ के भी मुख्य दो भेद होते हैं एक अरूपी जिसमें रंग, रूप, गंध, स्वाद आदि नहीं होते और अत्यन्त सूक्ष्म होने से शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से अथवा किसी भी यन्त्र आदि से न देखे जा सकते और न ग्रहण किये जा सकते हैं । दूसरा भेद जिसे पुद्गल कहते हैं जिसमें रंग, रूप, गंध, स्पर्श, स्वाद तथा प्रभा, छाया, मिलना, बिछुडना आदि अनेक गुण होते हैं । पुद्गल का शुद्ध रूप परमाणु पुद्गल कहलाता है जो चरम चक्षुओं से या यन्त्रों से न देखा जा सकता है न ग्रहण ही किया जा सकता है । जीव एवं पुद्गल दोनों जब शुद्ध अवस्था में होते हैं तब तक दोनों में किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं हो सकता। परन्तु दोनों जब तक अशुद्ध जिसे विकारी या विभाव अवस्था कहा जाता है, में रहते हैं तब तक दोनों का सम्बन्ध रहता है । विकारी जीव के पुद्गल के साथ के सम्बन्ध को बन्ध कहा जाता है। जीव जब अपने शुद्ध स्वरूप को अनुभूति के स्तर पर जानकर मान लेता है तो अपनी विकारी या विभाव दशा को त्याग कर हमेशा के लिये शुद्ध अवस्था जिसे मोक्ष तत्त्व माना गया है को प्राप्त कर लेता है । सुख के दो भेद - प्रथम भौतिक दूसरा आध्यात्मिक
सुख मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है। प्रथम भौतिक अथवा पौगलिक है जो सातावेदनीय अर्थात् जीव द्वारा पूर्व में किये गये शुभ कर्मों के फलस्वरूप मिलता है । सभी प्रकार के भौतिक सुखों का समावेश धन, कुटुम्ब, शरीर एवं अहं के सुख में हो जाता है। जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक प्रत्येक संसारी जीव इसी सुख को ही सुख जानते, मानते हैं तथा जो आचरण चाहे वह पाप रूप हो अथवा पुण्य रूप हो, इसी सुख के लिये करते हैं । वास्तव में यह सुख, सुख न होकर सुखाभास होता है जैसा कि मिश्री, हीरा, नोट, साइकिल, शराब, हीरोइन, विष्ठा आदि के उदाहरणों से पहले सिद्ध किया जा चुका है। इस सुख में दुःख या अशांति छिपी हुई रहती है जो व्यक्ति को सच्चे ज्ञान के अभाव एवं दृष्टि दोष के कारण अनुभव में नहीं आ पाती । जैसे किसी को पीलिया रोग होने पर हर वस्तु पीली ही नजर आती है चाहे वह शुद्ध सफेद ही क्यों न हो, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि रूप जो आत्मा का पीलिया है उसके कारण उसे अशांति या दुःख भी सुख रूप ही लगता है। यह दृष्टिदोष मिथ्यात्व मोहनीय के उदय के कारण होता है। जिस प्रकार शराब आदि के नशे या क्लोरोफार्म
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