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२८२ जिनवाणी-विशेषाङ्क
अप्रेल-जून, १९९६ पूर्ण हो सकती है। देव, गुरु व धर्म पर अटूट श्रद्धा, मन, वचन, काया से होने एवं शुक्ललेश्या युक्त होने से द्रव्य का अथवा क्रिया का आराधक तक तो जीव अनन्त बार हो जाता है, परन्तु फिर भी निश्चय सम्यग्दर्शन का आना आवश्यक नहीं है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र की चतुर्थ शुद्धि आत्मपरक कहलाती है। जिसमें जीव 'स्व' रूप आत्मा और 'पर' रूप धन, कुटुम्ब, शरीर से भी आगे बढ़कर आत्मा के अन्दर छिपे हुए क्रोध एवं अहं
आदि कषायों, रागद्वेष एवं मोह- ममत्व के भावों को भी आत्मा की अनुभूति के स्तर तक 'पर' जान व मान भी लेता है। जिसके फलस्वरूप 'पर' में मोह अर्थात् मिथ्यात्व मोहनीय एवं पर के भोग के रस रूप अनन्त का अनुबन्ध कराने वाले अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय या उपशम हो जाता है। जन्मांध की आंखें खुल जाने से भी अनन्तगुणा आनन्द एवं शांति की अनुभूति सच्चे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में मानी गयी है। इस आत्मपरक दृष्टि के होने से संसार के सभी प्राणियों को 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' अथवा 'सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्म भुयाइ पासओ' (दश. अ-४ गा.९) कथनानुसार अपने समान समझने लग जाता है और संसार के सभी अज्ञानी एवं मिथ्यात्वी जीवों के प्रति अनन्त भावकरुणा जागृत हो जाती है। 'मित्ती मे सव्वभूएस' अर्थात् प्राणी मात्र से सच्ची मैत्री का व्यवहार करने लग जाता है। अपने अन्दर शेष रही हुई कषायों को शीघ्रातिशीघ्र नष्ट करने की भावना प्रबल हो जाती है । वस्तुत: आत्मा के स्तर तक होने वाले कषायों, राग-द्वेष एवं मोह का नष्ट होना ही सच्चा धर्म है। धर्म का फल तत्काल शान्ति
आज अधिकांशतः धर्म के फल को परलोक से जोड़ दिया जाता है अथवा इस जीवन में भौतिक सुखों के मिलने को ही धर्म का फल मान लिया जाता है। वास्तव में धर्म का फल परलोक में नहीं, सदैव तत्काल मिलता हैं ॥ दूसरी बात धर्म का फल शांति का मिलना है। अनुकूलता में राग और प्रतिकूलता में द्वेष न करने रूप समभाव या समता का नाम ही सच्चा धर्म है । जिस प्रकार प्यासे व्यक्ति को पानी पीते ही तत्काल प्यास कम होने रूप सुख मिलता ही है उसी प्रकार राग, द्वेष एवं क्रोध आदि कषायों से तनावग्रस्त एवं अशांत बने व्यक्ति को समता रूप धर्म का आचरण करते ही तत्काल शांति मिल ही जाती है । उदाहरण के तौर पर अपमान या हानि आदि होने के कारण व्यक्ति को क्रोध के आने की संभावना होते ही यदि वह विचार करले कि अपमान अथवा हानि से मेरी आत्मा की क्या हानि हो सकती है? क्रोध करूंगा तो हानि अवश्य हो जायेगी और क्रोध से मुझे एवं जिस व्यक्ति पर क्रोध करूंगा उसे भी दुःख होगा ऐसा दृढ़ निश्चय कर यदि समभाव अर्थात् क्षमा का भाव धारण कर लेता है तो वह क्रोध से होने वाले तनाव एवं अशांति से तत्काल ही बच सकता है। कोई भी व्यक्ति तनावग्रस्त एवं अशान्त हुए बिना क्रोध कर ही नहीं सकता। क्रोध की तरह मान, माया, लोभ, राग, द्वेष अथवा हिंसा, झूठ, चोरी आदि कोई भी पाप तनावग्रस्त एवं अशांत हुए बिना नहीं किया जा सकता। अनुकूल संयोग जैसे धन, परिवार, अच्छा खान-पान इन्द्रिय के विषयों का भोग, सम्मान आदि के समय जो राग किया जाता है वह लगता तो सुख रूप है, पर वह भी मीठे जहर के समान हैं और दुःखों की जड़ रूप अशांति उसमें भी छिपी हुई रहती है, पर अहं एवं राग के नशे में व्यक्ति उस अशांति को न समझ सकता है न अनुभव कर सकता है। अनुकूलता में राग न करना और प्रतिकूलता में द्वेष न करने का नाम ही समता या समभाव
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