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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार
२८७ भिन्न हो जाता है। ऊर्जस्वी मनुष्य के पुरुषार्थ की दिशा बदल जाती है। जीवन सिक्के के दूसरे सिरे आत्मगुण-आत्मबल में उभार प्रकट होने लगते हैं। कमजोर पक्ष के स्व में निखार आने लगता है। अंतर का यह विकास और उसकी समृद्धि भटके संतुलन को पुनः स्थापित करते हैं।
पश्चिम की संस्कृति को ही आधुनिकता की परिभाषा मानना गलत है। युगानुरूपता आधुनिकता है। पश्चिम की नकल पर आये आकर्षक भोग-साधन वहाँ से आई तकनीकी की तरह ही घिसे-पिटे और पुरानी पड़ चली मशीनों की तरह के हैं। वे वहां काम के न रहे तो हम पर चतुराई से थोप दिये गये। अंशतः उनकी उपयोगिता और आवश्यकता भी है, मगर पूर्णतः नहीं। हमारी अपनी समृद्ध धरोहर है
और परम्परा भी। वह गर्व की ही चीज नहीं बल्कि अनुकरणीय भी है। माना कि नया जरूरी है फिर भी हम भारतीयों के स्मरण में जो बात होना चाहिए वह यह कि हालांकि बीज, खाद और कीटनाशक आयातित हैं फिर भी हवा, पानी और जमीन देशी है जिस पर कि वर्तमान की फसल पनप रही है। उसे खड़ी रहने के लिए ठौर, बढ़ती रहने के लिए हवा-पानी यही के हैं, इसी सूक्ष्म मिट्टी के तत्त्व उसे ऊर्जा भी प्रदान करते हैं। बाहरी जितना आकर्षक हो उतना ही भीतरी समृद्ध हो तभी स्थायित्व आ सकता है। अन्यथा किसी भी एक की उपेक्षा करना अस्तित्व के साथ खिलवाड़ हो जाता है। ऐसा चिन्तन सम्यग्दृष्टि होने का संकेत है। सम्यग्दृष्टि होने पर भोग-साधनों के प्रति आकर्षण टूट जाएगा।
२०५, जवाहरनगर, जयपुर प्रज्ञा की आँख दो आदमी को सूक्ष्मदर्शी होना चाहिये। आदमी को दूरदर्शी होना चाहिये। इन्हें सार्थक करने को सर्वप्रथम आदमी को समदर्शी होना चाहिये । सम्यग्दी समदी होता है। सम्यग्दशी सत्यदर्शी होता है। दिन-रात देखता रहता है वह, सम्यग्दर्शी सर्वदर्शी होता है। मैं नहीं कहता मुझे हजार दो, लाख दो, स्वर्ण-रजत नहीं, दुर्लभ श्रद्धा की राख दो। अनित्य-असत्य देख-देख उलझा हूँ। सत्य को देख सकू ऐसी प्रज्ञा की आँख दो॥
-दिलीप धींग जैन, पो. बम्बोरा-३१३७०६, जिला-उदयपुर (राज.)
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