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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय विवेचन
साध्य मान लेना भूल है और भूल के रहते साध्य की प्राप्ति संभव नहीं है ।
'साध्य' साधक का सर्वस्व होता है और साधना उस साध्य की उपलब्धि में
सहायक होती है। । अतः साधना का महत्त्व है, परन्तु साधना को ही सर्वस्व समझ लेना, साध्य मान लेना भूल है। वैसे ही सहायक को सहायक न मानना भी दूसरी भूल है और सहायक को बाधक मान लेना तीसरी भयंकर भूल है । साधक को इन भूलों से बचना चाहिए ।
जो साधना सहायक है उस साधना को साध्य मान लेने रूप पहली भूल से प्रगति रुक जाती है कारण कि वह साधक सहायक (साधना) में ही अटक जाता है वह आगे नहीं बढ पाता है। सहायक को सहायक न मानने पर दूसरी भूल से साधक में सहायक (साधन या साधना) के प्रति रुचि नहीं जगती । रुचि न जगने से उस ओर कदम-चरण ही नहीं बढते । सहायक को बाधक मान लेने रूप तीसरी भूल से विपरीत दिशा की ओर कदम बढ़ते हैं जिससे साध्य या लक्ष्य से दूरी बढ़ती जाती है । अतः साधक का हित इसी में है कि जब तक साध्य को प्राप्त न कर ले तब तक साधना में रत रहे, साधना की उपेक्षा न करे । साधना की उपेक्षा करना असाधना है जो त्याज्य
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आशय यह है कि सत् चर्चा और सत् चिंतन रूप ज्ञानोपयोग 'दर्शनगुण' की उपलब्धि में सहायक है, सहयोगी है, बाधक नहीं है । अतः जब तक दर्शनोपयोग से स्व में स्थिरता की उपलब्धि न हो जाये तब तक ज्ञानोपयोग का आदर करते रहना चाहिए । कारण कि सत् चर्चा से चर्चा (बोलने) का राग गलता है और सत् चिंतन से चिंतन का राग गलता है। चर्चा और चिंतन का राग गलने से निर्विकल्पता की उपलब्धि होती है । निर्विकल्पता से दर्शन पर आया आवरण क्षीण व पतला होता है। जिससे दर्शन गुण प्रकट होता है। इस प्रकार सत् चिंतन दर्शनावरण के क्षय में एवं दर्शन गुण के प्रकटीकरण में सहायक होता है । अतः इस दृष्टि से सत् चिंतन का अपना महत्त्व है । ऊपर कह आए हैं कि दर्शन गुण के प्रकट होने पर ही स्वानुभव होता है । स्वानुभव से सत्य का साक्षात्कार होता है । सम्यग्दर्शन
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सत्य का साक्षात्कार होना सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन की उपलब्धि स्वानुभव से होती है, केवल चिंतन या ज्ञान से नहीं । जीव- अजीव, जड़-चेतन भिन्न-भिन्न हैं, यह ज्ञान एक बालक से लेकर नौपूर्वधर ज्ञानी को भी होता है। कौन बालक नहीं जानता है कि कलम कागज, कमीज, कमरा, किताब आदि कलश जड़ हैं और मैं चेतन जीव हूँ । इसी प्रकार नौ पूर्वधारी मिथ्यात्वी जीव भी जो तत्त्वों के ज्ञान को खूब जानता है, जीव- अजीव तत्त्वों पर सैकड़ों भाषण दे सकता है व सैकड़ों ग्रंथ लिख सकता है, परन्तु जीव- अजीव के भेद व भिन्नता का इतना ज्ञान होने पर भी उसे सम्यग्दर्शन हो, यह आवश्यक नहीं है । कारण कि इस बौद्धिक ज्ञान का प्रभाव बौद्धिक स्तर पर ही होता है आध्यात्मिक स्तर पर नहीं । आध्यात्मिक स्तर पर प्रभाव तभी होता है जब अन्तर्यात्रा कर आन्तरिक अनुभूति के स्तर पर स्थूल देह ( औदारिक शरीर ) सूक्ष्म देह ( तैजस - कार्मण शरीर) से अपने को अलग अनुभव करता है अर्थात् देहातीत होकर
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