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सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन
१६९ सम्बन्धित जितने सूत्र हैं वे सब नैसर्गिक नियम ही हैं, इसलिए त्रैकालिक व सनातन सत्य हैं, सार्वजनिक हैं, सार्वदेशिक हैं।
प्रकृति की किसी घटना को देखकर शान्त व तटस्थ चित्त से उस पर चिंतन-मनन कर नैसर्गिक नियमों को जानना व जीवन की यथार्थता का अनुभव व बोध करना ही नैसर्गिक सम्यक् दर्शन है। निसर्ग की प्रत्येक घटना में उत्पाद-व्यय या उत्पत्ति विनाश चल रहा है, परन्तु इनका मौलिक तत्त्व एवं इनका द्रष्टा ज्यों का त्यों अक्षुण्ण रहता है । यह मौलिक तत्त्व तथा द्रष्टा आत्मा अनुत्पन्न तत्त्व है, अविनाशी तत्त्व है, ध्रुव तत्त्व है उत्पाद, व्यय, ध्रुव यही निसर्ग का एवं संसार का स्वरूप है। उत्पाद, व्यय, ध्रुव इस त्रिपदी के ज्ञान में ही समस्त ज्ञान का सार समाहित है। यही वीतराग वाणी है। निसर्ग का उत्पाद-व्यय रूप अनित्य है, नश्वर है। इन अनित्य नश्वर वस्तुओं, घटनाओं व सुखों के प्रति राग-द्वेष करना इन सुखों के भोगों की दासता व प्रलोभन में आबद्ध होना समस्त दोषों व दुःखों का मूल है। अत: समस्त दुःखों से मुक्ति पाने का उपाय है राग रहित होना, वीतराग होना। वीतरागता में ही समस्त दुःखों की निवृत्ति एवं अक्षय, अखण्ड व अनन्त सुखों की उपलब्धि संभव है। वीतरागता को ही जीवन का लक्ष्य बनाना सम्यक् दर्शन है।
संसार के समस्त पदार्थ व इनसे मिलने वाला सुख अनित्य है, नश्वर है, निस्सार है। अत: आश्रय ग्रहण करने योग्य नहीं है। इस प्रकार निसर्ग को देखकर संसार के प्रति अनित्य, अशरण, असारता की भावना जागृत होना, संसार व सांसारिक सुखों के प्रति विरक्ति होना, वीतरागता की तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न होना निसर्ग सम्यक् दर्शन है। यही सम्यक् दर्शन जब किसी महापुरुष की वाणी द्वारा होता है तो अधिगमज सम्यक् दर्शन कहलाता है। सम्यक् दर्शन निसर्ग से हो या अधिगम से हो उसमें नैसर्गिक नियमों का ही बोध होता है।
प्रकारान्तर से कहें तो संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जिसे रोग, शोक, मृत्यु जरा, चिन्ता, भय, अभाव, वियोग, प्रतिकूलता आदि अगणित दुख न हों। नैसर्गिक नियमानुसार दुःख उसे ही भोगना पड़ता है जो विषयसुख का भोगी है। समस्त दुःखों
या दोषों का कारण विषय का भोग ही है। विषयसुख का भोग वही करता है जो विषय सुख, सुख की सामग्री तथा साधन शरीर, इन्द्रिय व भोग की वस्तु को स्थायी, सत्य व सुन्दर मानता है। संसार की वस्तुओं को व विषयसुखों को स्थायी, सत्य व सुन्दर वही मानता है जो निसर्ग के यथार्थ स्वरूप, क्रिया व कार्य पर ध्यान नहीं देता
संसार के समस्त कार्य-कलाप नैसर्गिक नियमों से संचालित हो रहे हैं। समस्त तत्त्वज्ञान व कर्मसिद्धान्त आदि में निसर्ग के नियमों का ही प्रतिपादन है। निसर्ग के नियमों के यथार्थ ज्ञान से यह स्पष्ट बोध होता है कि निसर्ग की समस्त वस्तुएं शरीर, सम्पत्ति आदि समस्त पौद्गलिक पदार्थ सड़न, गलन, विध्वंसन व नश्वर स्वभाव वाले हैं। इन वस्तुओं के नश्वर स्वभाव का ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा अविनश्वर, ध्रुव स्वभाव वाला है। अत: जड़ पुद्गल व आत्मा इन दोनों की जाति व गुणों में मौलिक भिन्नता है। इस भिन्नता का ज्ञान ही भेद-विज्ञान है जिसे सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
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