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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन । रहा । (ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र)
युद्ध के समय सेनापतियों को मोहित कर, उनसे भेद लेने या उन्हें मार देने के लिए शत्रु-पक्ष की ओर से सुन्दरी युवतियां भेजी जाती थी। वे अपने मोह जाल फैलाकर शूरवीर योद्धाओं को फाँस लेती थी। भूतकाल में विषकन्या के प्रयोग से शक्तिशाली राजा को मारने की घटनाएँ भी हुई हैं। डबल सोना बना देने का लोभ उत्पन्न कर लूटने की घटनाएँ भी घटी और विश्वास जमा कर असली के नाम पर नकली देने की घटनाएँ भी हुई और होती हैं।
क्षायिक-सम्यक्त्व और केवलज्ञान के लिए कोई खतरा नहीं। वे तो पूर्ण स्थायी और परम समर्थ हैं। किन्तु क्षायिक-सम्यक्त्व की प्राप्ति भी महती दुर्लभ है। संसारी जीवों में क्षायिक-सम्यक्त्वी अत्यन्त कम एवं क्षायोपशमिकी ही अधिक होते हैं। क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व का भी यदि पोषण और रक्षण किया जाय, तो वह क्षायिक-सम्यक्त्व एवं केवलज्ञान प्राप्त करा सकती है। ___ आत्मा पर चारित्रमोहनीय एवं दर्शनमोहनीय के छाये घने अन्धकार में, केवलज्ञानरूपी सूर्य ढका, छुपा और दबा हुआ पड़ा है। सम्यग्दर्शन रूपी दीप-ज्योति से अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्वमोहनीय का अन्धकार दूर करके प्रकाश कर देती है। उस प्रकाश से आत्मा अपने पर जमे हुए कर्म के अनन्त आवरण (कूड़ा-कचरा) देखती है। उसमें साहस का उदय होता है। सम्यग्दर्शन की दीप ज्योति, अपने पर जमे और जमते हुए अनन्त कर्मावरण को देख कर आत्मा सावधान होती है और विरति के कपाट लगा कर आते हुए कर्म-कचरे को रोक देती है। उसके बाद आत्मा अपने में तप रूपी हुताशनी प्रकट करती है। वह हुताशनी केवलज्ञान पर छाये हुए कर्म-जाल को जलाने लगती है और अन्त में घातीकर्म के समस्त कर्म-कचरे को भस्म करके केवलज्ञानरूपी सूर्य को उदय में ला देती है। इस प्रकार केवलज्ञान रूपी सूर्य को उदय में लाने वाली सम्यग्दर्शन रूपी दीपज्योति है। यह उपकार सम्यग्दर्शन का है। सम्यग्दर्शन ही केवलज्ञान को प्रकट करने वाला है। यदि सम्यग्दर्शन नहीं हो, तो केवलज्ञान भी नहीं हो। वह मिथ्यात्वमोहनीय के गाढ़ अन्धकार में ही दबा रहता है। सम्यक्त्व, केवलज्ञान की जननी है-माता है। इसका महत्त्व अत्यधिक है। ___ कुछ लोग सम्यक्त्व का अर्थ 'समभाव' करते हैं, यह अनुचित है। सोना और पीतल, खोटा और खरा, सच्चा और झूठा, सदाचार और दुराचार और हिंसा और अहिंसा में समभाव रखना-तटस्थ रहना, मात्र कहने की बात ही है, होने की नहीं। मनुष्य क्रियाशील है। वह सर्वथा निष्क्रिय एवं तटस्थ नहीं रह सकता, कुछ न कुछ क्रिया करेगा और किसी न किसी ओर झुकेगा ही। यदि वह समझदारी से उचित एवं शुभ क्रिया नहीं अपनाता, तो अशुभ क्रिया-पापाचार में लग जायेगा। फिर तटस्थता कहां रहेगी? वास्तव में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व का अर्थ सही दृष्टि, हेय और उपादेय में विवेक बुद्धि है। इस विवेकबुद्धि से ही, विरति के बल से ही, अधर्म का त्याग और धर्म का स्वीकार होता है। यही देश चारित्र और सर्वचारित्र है।
('शिविर व्याख्यान' से साभार)
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