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जिनवाणी-विशेषाङ्क जो अनन्त-अनन्त दया एवं करुणा का झरना बह रहा है और अनन्त-अनन्त दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की अभिनव ज्योति जग रही है, उसी में तीर्थङ्करत्त्वभाव निहित है।" ____ हां तो, सच्चा साधक शरीर के रंग-रूप को नहीं देखता। वह देखता है-आत्मा के गुणों को। बाग में नाना प्रकार के फूल खिले हों, उनमें से मधुर पराग झर-झरकर चतुर्दिक में फैल रहा हो, और आस-पास के भ्रमर दल गुंजन भी कर रहे हों, यदि उस समय कोई उन भौरों से पूछे कि-फलों का रंग-रूप कैसा है? तो भौरे यही उत्तर दे सकते हैं कि-यह हम से मत पूछो कि-फूलों का रंग-रूप कैसा है, आकार-प्रकार कैसा है? हम से यह भी मत पूछो कि-फूलों के साथ कांटे हैं या नहीं? हमसे यह भी मत पूछो कि-फूल कहाँ खिले हैं? नगर के मोहक उपवन में, या निर्जन वन में शून्य डाल पर? क्योंकि हमारा इन व्यर्थ की बातों को जानने से कोई प्रयोजन नहीं। यदि हम से कोई बात पूछना है, तो यह पूछो कि-फूल में सुगंध है या नहीं? हमारा प्रयोजन रूप-रंग से नहीं, अपितु सुगन्ध से है, मकरन्द से है।
साधक को भ्रमर की उपमा दी गई है। संस्कृत-साहित्य में इसका विस्तृत वर्णन है। आज के चलते गायनों में भी गाया जाता है कि-'मैं भगवान के चरणों में मधुप बन जाऊँ ।' परन्तु देखना तो यह है कि आप कैसे भ्रमर बनेंगे? क्या आप उनके आकार-प्रकार को निहारते रहेंगे, या उनके अनन्त-जीवन वीतराग भाव की महासुगन्ध को लेंगे।
आपको भली-भांति मालूम है कि उनके गुणों की महा सुगन्ध कहाँ है? क्या वह सुगन्ध किसी व्यक्ति-विशेष, पंथ-विशेष, शास्त्र-विशेष या स्थान-विशेष में बन्द है? नहीं। वह तो यत्र-तत्र-सर्वत्र फैली हुई है। उनके ज्ञान, दर्शन, चारित्र, एवं जिनत्व की महा सुगन्ध महलों में भी फैली, झोपड़ियों में भी फैली और निर्जन वनों में भी फैली। उनके पवित्र जीवन की महा सगन्ध वेदों के ज्ञाता महापंडित गौतम के जीवन में भी फैली और वही सुगन्ध ग्यारह-सौ-इकतालीस स्त्री-पुरुषों के संहारक महापातकी अर्जुन के जीवन में फैली और उसने उस जीवन को भी सुवासित बना दिया। __ आज का साधक अपने लिए उपमा तो भ्रमर की लगा रहा है, किन्तु यदि वह वीतरागभाव को न पहचान कर, मात्र बाहर के रूप-रंग एवं वैभव में ही अटका रहता है, तो वास्तव में अभी तक उसके जीवन में भ्रमरत्व जगा नहीं, अथवा यों कहिए कि उसका दृष्टिकोण अभी बदला ही नहीं। उसके जीवन में सम्यक्त्व का प्रकाश अभी तक जग नहीं पाया है। उसने महल तो बनाया और उसे बहुत ऊँचा भी उठाया, परन्तु दुर्भाग्य है कि उसकी नींव में एक भी ईंट नहीं रखी। तो आप ही बताइए, वह महल कितनी देर तक ठहरेगा? जब तक हवा का झोंका या किसी का धक्का न लगे, तभी तक।
यही बात सम्यक्त्वविहीन जीवन के लिए भी है। जीवन की अन्तरंग भावना को बदले बिना साधना का महल टिक नहीं सकता। अस्तु, जब तक दृष्टि नहीं बदलती, तब तक सृष्टि भी नहीं बदल सकती और जीवन के कण-कण में साधना की, वीतराग भाव की एवं जिनत्व की महा सुगन्ध भी नहीं फैल सकती।
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