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दृष्टि-परिवर्तन
= गणाधिपति श्री तुलसीजी - जैन साधना-पद्धति में 'सम्यक्दृष्टि' का बहुत महत्त्व है। 'सम्यक् दृष्टि' का तात्पर्य है-वस्तु को यथास्थिति समझना अर्थात् अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा मानना, रात को रात और दिन को दिन समझना। यह बहुत संभव है कि व्यक्ति में बुरा को छोड़ने की शक्ति न हो पर यदि वह बुराई को बुराई के रूप में स्वीकार करता है तो उसकी दृष्टि सम्यक् है।
प्रश्न होता है कि जब व्यक्ति बुराई को छोड़ नहीं सकता तो उसे मात्र बुरा समझने से क्या लाभ? सबसे पहला लाभ तो यह है कि सम्यक्दृष्टि व्यक्ति दूसरे को उस बुराई के रास्ते नहीं ले जाएगा। कोई उससे परामर्श लेगा तो वह उसे उचित परामर्श देगा।
उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति को अफीम खाने की लत है। यदि वह मानता है कि मेरा अफीम-सेवन बुरी चीज है तो वह अपने इष्ट मित्रों को कभी अफीम खाने की प्रेरणा नहीं देगा। वह कहेगा-यह बहुत बुरी लत है, मैं तो आदतन आदी हो गया हूँ अत: लाचार हूँ, पर तुम इसके चक्कर में मत पड़ना।
यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण सही है तो आज नहीं तो कल काम लेगा; आज बुराई नहीं छोड़ सका है, पर कल अवश्य वह बुराई को छोड़ सकेगा। जहां सही दृष्टि होती है वहां व्यक्ति के मन में बुराई के प्रति ग्लानि पैदा होने लगती है। जहां बुराई के प्रति मन में पर्याप्त ग्लानि पैदा हो जाती है, वहां बुराई से मुक्त होने में देर नहीं लगती।।
मानसिक ग्लानि के अभाव में उपदेश भी असर नहीं करता। कानून और व्यवस्था भी तभी कारगर होती है जब व्यक्ति का दृष्टिकोण परिवर्तित हो जाए।
शराब, दहेज, मृत्युभोज आदि बुराइयों के लिए आज अनेक प्रकार के कानून और सामाजिक वर्जनाएं हैं, पर क्या ये सब कार्य सर्वथा बन्द हो गए हैं ? जब ये सब बुराइयां ज्यों की त्यों चल रही हैं तो फिर कानून और सामाजिक वर्जनाओं ने क्या किया ? सामाजिक दृष्टि से कानून का अपना उपयोग है पर अकेला कानून अकिंचित् कर है। अकेला कानून बुराई को मिटाने के बजाय अन्य प्रकार की दूसरी-दूसरी बुराइयों को जन्म देता है।
प्रश्न हो सकता है कि क्या ऐसी स्थिति में कानून नहीं रहने चाहिए ? नहीं रहने की बात मैं नहीं कह सकता। समाज और राष्ट्र की सुरक्षा और सुव्यवस्था के लिए
सरकार और समाज को सब कुछ करना पड़ता है। यदि सरकार कानून व्यवस्था न - बनाए रखे तो समाज में अराजकता फैल सकती है । पर इतना अवश्य है कि अकेले ... कानून से स्थायी काम नहीं होता। कानून तभी सफल होता है जब उसके पीछे दृष्टि
परिवर्तन की पृष्ठभूमि तैयार हो। जमीन तैयार हो, फिर बीज और वर्षा हो तो खेती होती है अन्यथा बीज और वर्षा उपयोगी साबित नहीं हो पाती।
दृष्टि-परिवर्तन के लिए ज्ञान की आवश्यकता है, परन्तु वह ज्ञान श्रद्धायुक्त होना चाहिए। श्रद्धा-विहीनज्ञान दृष्टि में जैसा परिवर्तन चाहिए वैसा नहीं कर सकेगा। अत:
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