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जिनवाणी-विशेषाङ्क श्रद्धा का बल
श्रद्धा हमारे जीवन पथ को आलोकित करती है - प्रकाशमय बनाती है। जब तक हमारे मन में सच्ची श्रद्धा नहीं है, बाह्य क्रियाएं हमें कोई फल नहीं देती। गुरु गोरखनाथ एक महान् योगी थे। उन्होंने अनेक सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं। एक बार वे साधना द्वारा पारस पत्थर प्राप्त करने में सफल हो गये। इस पत्थर द्वारा वे लोहे को सोने में परिवर्तित कर सकते थे। अब तो सहस्रों व्यक्ति उनके भक्त हो गये । एक बार वे अपने शिष्य मच्छिन्द्रनाथ के साथ यात्रा कर रहे थे। मार्ग में उन्हें एक गृहस्थ के घर पर भोजन के लिए रुकना पड़ा। उन्होंने झोली. मच्छिन्द्रनाथ को दे दी। भोजन के बाद वे आगे चल पड़े। रास्ते में निर्जन वन था। गोरखनाथ ने अपने शिष्य को कहा - 'बेटा हमें निर्जन वन से होकर जाना है। रास्ते में कुछ भय तो नहीं है?' मच्छिन्द्रनाथ ने कहा - 'गुरुजी, भय को तो मैं रास्ते में ही फेंक आया हूँ। आप निश्चित विचरण करें ।' गुरु गोरखनाथ ने देखा, झोली में वह पारस पत्थर नहीं है । उन्होंने कहा, “मूर्ख, तूने यह क्या किया, वह पत्थर सामान्य नहीं, पारस पत्थर था।" मच्छिन्द्रनाथ ने कहा - "महाराज आपने तो कञ्चन व कामिनी को त्याग दिया था, फिर पारस पत्थर में मोह कैसे किया?" ऐसा कह कर उन्होंने कहा कि मैं पास के पहाड़ पर लघुशंका करने जाता हूं। बाद में उन्होंने गुरु को बताया कि जहां जहां उन्होंने लघुशंका की, वहाँ का पत्थर सोने का बन गया । गुरु यह देख कर आश्चर्य चकित हो गये। मच्छिन्द्रनाथ ने कहा - 'गुरुदेव ! यह आपकी ही कृपा है। पर हम लोग योगी हैं, सन्यस्त हैं, हमें पारस पत्थर का मोह रखना उचित नहीं। साधु के लिये तो स्वर्ण एवं पत्थर एक समान होने चाहिये।' इस प्रकार एक शिष्य ने गुरु की श्रद्धा को स्थिर किया।
तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है “श्रद्धा प्रतिष्ठा लोकस्य देवी" अर्थात् श्रद्धा देवी ही लोक की प्रतिष्ठा है, आधार शिला है। आज के जीवन की विडम्बना है कि व्यक्ति चलता तो है पर उसके चरणों में श्रद्धा या निष्ठा का बल नहीं है। उसके मन में संशय, भय और अंधविश्वास छाया हुआ है। आत्म-बोध . सम्यक्त्व की शास्त्रीय व्याख्या करते हुए कहा गया कि नौ तत्त्व सद्भूत पदार्थ हैं - १. जीव, २. अजीव, ३. बन्ध, ४. पुण्य, ५. पाप, ६. आस्रव, ७. संवर, ८. निर्जरा और ९. मोक्ष (उत्तराध्ययन सूत्र, २८.१४) । तत्त्वों अर्थात् पदार्थों में सबसे पहला जीव या आत्मा है। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। आत्मा का सही बोध प्राप्त करना ही अध्यात्म-साधना का चरम लक्ष्य है। सात तत्त्वों, नव पदार्थों और षड्द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ तत्त्व है आत्मा। मनुष्य के जीवन में सुख और दुःख दोनों को उत्पन्न करने वाली आत्मा है। इसलिये कहा गया कि आत्मा को जीतना ही सबसे कठिन कार्य है -
जो सहस्सं - सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥” (उत्तराध्ययनसूत्र, ९.३५) अर्थात् दुर्जय संग्राम में सहस्र-सहस्र शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा एक अपनी आत्मा को जीतना परम जय है - महान् विजय है। जो अपनी आत्मा को जीत लेता है, वही सच्चा संग्राम-विजेता है।
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