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जिनवाणी- विशेषाङ्क
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इस प्रकार कामना की पूर्ति में तत्पर हुआ पुरुष न कामना की पूर्ति कर पाता है, न पूर्तिजन्य तृप्ति का रसास्वादन कर सकता है और न जीवन के ऊँचे ध्येय को सम्पन्न करने में समर्थ हो पाता है । प्रत्युत अतृप्तिजन्य आकुलता की आग में जलता हुआ अपने भविष्य को दुःखमय बनाता है ।
इस तथ्य को जानकर जिसने लालसा का त्याग कर दिया, वही ज्ञानी है और उसे तत्काल ही सन्तोष-सुधा के पान करने का सुअवसर प्राप्त हो जाता है
सम्यग्दृष्टि का कर्त्तव्य है कि वह वीतरागोपदिष्ट मार्ग से विरुद्ध किसी मार्ग की अभिलाषा न करे और अपने सम्यक्त्व को निर्मल रखे ।
(३) विचिकित्सा
सम्यग्दर्शन का तीसरा अतिचार विचिकित्सा है।
विचिकित्सा का अर्थ है - फलप्राप्ति में सन्देह करना । मैं व्रतों और नियमों का जो पालन कर रहा हूं, उसका फल मिलेगा अथवा नहीं? इस प्रकार की डगमगाती चित्तवृत्तिविचिकित्सा है ।
मतविभिन्नता को देखकर, निर्णायक बुद्धि के अभाव के कारण, ऐसा समझना कि यह भी ठीक है और वह भी ठीक है, इस प्रकार की बुद्धि की अस्थिरता भी विचिकित्सा के अन्तर्गत है I
मुनिजनों की आन्तरिक पवित्रता एवं उज्ज्वलता की ओर न देखकर, शारीरिक मलिनता को ही देखना और मन में ग्लानि लाना भी विचिकित्सा है । सम्यग्दर्शनी के लिए यह भी अतिचार है
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(४-५) परपाखण्ड प्रशंसा और परपाखण्ड संस्तव
ये सम्यग्दर्शन के चौथे-पांचवें अतिचार हैं । इनका क्रमशः अर्थ है - मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना और परिचय करना ।
मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा करने से मिथ्यात्व की प्रशंसा होती है और उसकी संगति करने वाले में मिथ्यात्व की उत्पत्ति की संभावना रहती है । सब साधक एक-से प्रौढ़ नहीं होते, तत्त्वनिष्णात नहीं होते, अतएव वे विरोधी संसर्ग से पथभ्रष्ट हो सकते हैं । उनका हित और बचाव इसी में है कि वे ऐसे प्रतिकूल परिचय और प्रभाव से दूर रहें । सूरदास कहते हैं
जाके संग कुमति उपजत है, परत भजन में भंग,
तजो रे मन ! हरिविमुखन को संग। - सूरसागर
हे मन ! जिनकी संगति से कुबुद्धि उत्पन्न होती है, और प्रभु कें भजन में विघ्न उपस्थित होता है, उसकी संगति मत कर। क्योंकि
संसर्गजा दोषगुणा: भवन्ति ।
अच्छी एवं अनुकूल संगति गुणों को उत्पन्न करती है और कुसंगति दोषों को उत्पन्न करती है ।
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