________________
२५६
जिनवाणी-विशेषाङ्क रहेगी, जलन रहेगी और सदैव काँटे चुभते ही रहेंगे।
अस्तु, निष्कर्ष यह निकला कि ऊर्ध्वमुखी भावना में आनन्द है और शान्ति है। इस सम्बन्ध में एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण विचार है। ऊर्ध्वमुखी दृष्टिकोण का सर्वप्रथम सोपान है - “मन में से पाप वृत्ति को छोड़ देना।” भले ही आप अभी तक पाप को छोड़ नहीं सके हों, परन्तु यदि आपका यह दृष्टिकोण बन गया है कि पाप-पाप है, तो एक दिन अवश्य ही आप पाप का परित्याग भी कर सकते हैं। आपके चारों तरफ पाप का जाल बिछा है, अज्ञान और अविद्या का सागर लहरा रहा है। फिर भी अपने
अन्तर्मन में यदि आपने पाप को पाप, अज्ञान को अज्ञान, तथा अविद्या को अविद्या मान लिया है, तो एक दिन आप इनसे अवश्य ही मुक्त हो सकते हैं।
जैन-धर्म कहता है कि यदि आपको हिंसा छोड़नी है, तो पहले अन्दर में हिंसा की दृष्टि को बदलें; अर्थात्- मन की हिंसा को छोड़ें। मन की हिंसा छोड़ने का अर्थ है - हिंसा को हिंसा के रूप में समझना। इसी प्रकार असत्य आदि पापाचार को त्यागना है, तो पहले उन्हें मन में त्याज्य समझें।
जीवन में क्रान्ति लाने के लिए, अन्तर्भावों में पैदा होने वाली यह समझ बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। शास्त्रीयभाषा में इसे 'सम्परत्व' कहते हैं । जैन-धर्म ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि - "जब आत्मा में अनन्त-अनन्त पुरुषार्थ जागृत होता है, तब मनुष्य में असत्य को असत्य मानने की भावना उद्बुद्ध होती है ।” और इतना समझने के बाद, उसे छोड़ना इतना सरल और सुसाध्य हो जाता है कि मानो उसने अन्तःस्तल की गहराई में अनन्त-अनन्त काल से बद्धमूल विष-वृष की जड़ों को खोद कर खोखला कर दिया है। अब उसे समाप्त करने में, मात्र चारित्र-रूप में एक त्याग के झटके की ही आवश्यकता है।
परन्तु दुर्भाग्य है, आज के साधक मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व को शास्त्रीय भाषा में तो कम तोलते हैं, किन्तु बाहरी भाषा में अधिक। इसीलिए बाहर में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के नारे अधिक लगाए जा रहे हैं। आज के धर्म-गुरु अपने मनोऽनुकूल हर किसी व्यक्ति पर सम्यक्त्व का लेबल लगाने के लिए इतने आतुर हैं कि कुछ पूछिए ही नहीं। जब कोई आदमी उनके पास आता है, तो अपनी जल्दबाजी में उससे यह नहीं पछते कि तमने हिंसा असत्य पापाचार तथा विश्वासघात को अन्तर्मन में समझा है या नहीं? तुम्हारे अन्दर की दृष्टि बदली है या नहीं? परन्तु हर किसी आगन्तुक से यही पूछा जाता है कि - सम्यक्त्व ली है या नहीं? यदि वह कहता है कि - अमुक गुरु से ली है; तो दूसरा प्रश्न पूछा जाता है कि - गुरु जी जीवित हैं या नहीं? यदि गुरु जीवित नहीं हैं, तो कहा जाता है कि - जब गुरु मर गए, तब फिर सम्यक्त्व कहाँ रही? अतः अब तुम मेरी सम्यक्त्व ले लो। इसका क्या अर्थ हुआ? क्या गुरु के मरते ही, सम्यक्त्व भी मर गई? नहीं, कभी नहीं। गुरु तो केवल निमित्त मात्र हैं, वे तो मनुष्य की भावना जगाने में ही सहायक हो सकते हैं। अतः सम्यक्त्व का सम्बन्ध गुरु के साथ नहीं जोड़ा जा सकता, उ. का सम्बन्ध तो आत्मा के साथ है ।
यदि साधक की अन्तरात्मा नहीं जगी है, तो विश्व का कोई भी महापुरुष उसे नहीं जगा सकता। यद्यपि गोशालक छह वर्ष तक भगवान् महावीर के साथ रहा, और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org