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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार धर्म-शास्त्रों का स्वाध्याय कर लें, पर अपना स्वाध्याय नहीं कर सकेंगे, अपने को नहीं पहचान सकेंगे। यदि आप अपने को नहीं पहचान सके, तो फिर दूसरे को कैसे पहचान सकेंगे? हाँ, तो, धुंधले दर्पण में 'मैं' और 'वह' का सही रूप नहीं जाना जा सकता। और जब दृष्टि-बिन्दु साफ होता है, तो 'स्व' और 'पर' दोनों का ही सही-सही ज्ञान हो जाता है। 'स्व' और 'पर' की सीमाएँ अनन्त हैं, अतः विकसित दशा में एक का पूर्ण ज्ञान होने पर सारे संसार का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। अर्थात्-“जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ” । ___ एक बार एक जैनाचार्य से पूछा गया - कौन-से शास्त्र सम्यक् हैं? तो उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही कि शास्त्र अपने आपमें न तो सम्यक् हैं, और न मिथ्या। 'सम्यक्' और 'मिथ्या' है - मनुष्य का. अपना दृष्टिकोण, अपना विचार और अपना चिन्तन । यदि हमारा दृष्टिकोणं बदल गया है, तो सभी शास्त्र, भले ही किसी भी धर्म, पन्थ या सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले क्यों न हों, साधक के जीवन को सहज में बदल सकते हैं। यदि जैनाचार्य की स्पष्ट भाषा में कहूँ तो - सम्यक् दृष्टि के लिए काव्य तथा व्याकरण-शास्त्र भी सम्यक् हैं, और इतना ही क्यों, विश्व के सम्पूर्ण शास्त्र सम्यक् हैं और मिथ्या-दृष्टि के लिए तो भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित जैन-शास्त्र भी मिथ्या हैं। अस्तु, भावार्थ यही है कि - यदि दृष्टि सम्यक् है, तो सारे शास्त्र सम्यक् हैं। और यदि दृष्टि मिथ्या है, तो सारे शास्त्र भी मिथ्या हैं। यदि दृष्टि निर्मल है और वह स्पष्टतः खुली है, तो चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है। यदि दृष्टि धुंधली है, और उस पर विकारों का पर्दा पड़ा है, तो चारों ओर अन्धेरा ही अन्धेरा है।
यही बात सुख-दुःख के वेदन में है। एक मिथ्या-दृष्टि व्यक्ति परिवार में रहता है और उसने जीवन का सम तत्त्व नहीं पाया है, तो वह निरन्तर जलता रहेगा, प्रतिपल अनन्त-अनन्त कर्मों को बाँधता रहेगा और दुःख वेदता ही रहेगा। उसी परिवार में एक सम्यक्-दृष्टि रहता है, और उसकी दृष्टि सम है, तो वह निरन्तर अशुभ कर्मों की निर्जरा करता रहेगा। साथ ही आनन्द एवं शान्ति की अखण्ड धारा में प्रवहमान भी रहेगा। ___ एक आचार्य ने उपमा देकर समझाया है। एक पौधा है, जिसके नुकीले काँटों का रुख ऊपर की ओर होता है। उस पौधे को यदि कोई व्यक्ति ऊपर से नीचे की ओर Vतता है, तो उसके हाथ में काँटे चुभते हैं, खून की धारा बहती है, और वेदना होती है। यदि कोई नीचे से ऊपर की ओर सँतता है, तो उसके हाथ में न काँटा चुभता है, न खून बहता है, और न वेदना ही होती है।
दोनों अवस्थाओं में काँटे वे ही हैं। किन्तु एक के लिए दुःख रूप हैं, तो दूसरे के लिए सुख रूप। जो ऊपर से नीचे की ओर सँतता चला जाता है, वह वेदना से कराहता है; और जो नीचे से ऊपर की ओर सँतता है, वह पीड़ा से मुक्त रहता है। यही बात परिवार, समाज, संघ एवं राष्ट्र के सम्बन्ध में भी है। आप परिवार, समाज एवं राष्ट्र में जहाँ कहीं भी रहते हैं, यदि सर्वत्र ऊर्ध्वमुखी विचार लेकर रहें, तो आपको कहीं भी काँटा नहीं चुभेगा। यदि आपका दृष्टिकोण अधोमुखी है, तो फिर चाहे परिवार में रहें या समाज में, श्रावक रूप में रहें या साधु के वेश में ; सर्वत्र वेदना
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