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जिनवाणी-विशेषाङ्क मानना भी मिथ्यात्व है, क्योंकि मूर्ति जीव कैसे हो सकती है ? मूर्ति में असली व्यक्ति के गुण नहीं हो सकते । जैसे रामचन्द्र जी और कृष्णजी की मूर्ति पर से चोर आभूषण उतार कर ले जाते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि उनकी मूर्ति को वही नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसमें जीव के गुण नहीं हैं। यदि उसमें जीव के गुण होते तो वह चोरों से अपना बचाव अवश्य ही करती। इसी तरह फोटो का उदाहरण
घर में पड़ी पति की मूरत, फिर भी विधवा रहती, देख ससुर की सूरत को भी लज्जा बहू नहीं करती।
ओ सजनो बूंघट बहू नहीं करती। अतएव मूर्ति को मूर्ति मानने में, चित्र और फोटो को चित्र और फोटो मानने में कोई हानि नहीं, किन्तु भगवान् मानना मिथ्यात्व है। वन्दन किसे करना चाहिये, इसके लिए कहा गया है
वन्दन उसको पूजन उसको नमन उसी को होवे,
जो सम्यग्ज्ञानी, सम्यग्दी , संयम गुण से सोवे, __संसार में मुख्यतः दो ही तत्त्व हैं - १. जीव और २. अजीव। इन दो तत्त्वों का विस्तार ही नवतत्त्व है। छः द्रव्यों में से जीवास्तिकाय के अतिरिक्त पांच द्रव्य अजीव ही हैं। इन पांचों में से चार तो अरूपी, अदृश्य हैं। इनमें दृश्यता के गुण-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श नहीं होते। पुद्गलास्तिकाय रूपी है - दिखाई देने वाला है। उसमें शब्द वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श है अर्थात् सुनाई देने वाला शब्द, दिखाई देने वाला वर्ण (रूप) सूंघने में आने वाली गंध, जिह्वा द्वारा चखे जाने वाले रस और हाथ आदि शरीर से छुए जाने वाले स्पर्श, ये सब पुद्गल जड़ के लक्षण हैं। धूप, अन्धकार, प्रकाश, छाया आदि भी अजीव के ही लक्षण हैं। १८. सन्मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना मिथ्यात्व
जिस प्रकार कुमार्ग को सुमार्ग मानना मिथ्यात्व है उसी प्रकार सन्मार्ग को कुमार्ग अथवा मोक्ष मार्ग को संसार-मार्ग मानना भी मिथ्यात्व है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, दान, दया, सन्तोष, सत्य आदि जो मुक्ति के मार्ग हैं, उन्हें कर्म बन्ध का या संसार में परिभ्रमण का मार्ग कहना मिथ्यात्व है। ___ अनेक लोग कहते हैं कि जीव को मारने से एक हिंसा का पाप लगता है मगर मरते हुए जीव को बचाने में अठारह पाप लगते हैं, क्योंकि मरता हुआ जीव यदि बचकर जीवित रह जाएगा तो वह जितने पाप अपने जीवन में करेगा उन समस्त पापों का भाजन बचाने वाला होगा। इसी तरह संथारा करके मोक्ष प्राप्त करने वाले को आत्महत्या कहना आदि अनेक इस प्रकार की कुयुक्तियां लगाकर वे लोग भोले जीवों के हृदय में विपरीत युक्तियां बिठा देते हैं उनके हृदय से दया निकाल कर उन्हें कसाई के समान बना देते हैं। शास्त्रों में जीवरक्षा, दान, संथारा आदि के अनेक प्रमाण मौजूद हैं जैसे - श्री ऋषभदेव भगवान ने कल्पवृक्षों के नष्ट होने से जीवों को दुःखी देखकर उनकी रक्षा के लिए तीन प्रकार के कर्मों असि, मसि और कृषि का प्रचार किया। इसी तरह तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ ने लक्कड़ में जलते नाग को बचाया जिसका उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है। सम्यग्दृष्टि जीवों को चाहि कि उन्मार्ग को दुःख का कारण जानकर उससे दूर रहें। सन्मार्ग ही परम सुख का मार्ग है, यही एक
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