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जिनवाणी- विशेषाङ्क
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ज्ञानवान लोग विवादी होते हैं और विवाद में विरोधी पक्ष वाले का बुरा सोचना पड़ता है। इससे पाप और झूठ लगता है । ज्ञानी पग-पग पर डरता है, इसलिए उसे हर समय कर्म का बंध होता रहता है। इससे तो अज्ञानी अच्छे हैं जो न जानते हैं न किसी के साथ विवाद करते हैं, न किसी को सच्चा झूठा कहते हैं । अज्ञानी पुण्य और पाप को समझते नहीं है । इस कारण उन्हें दोष भी नहीं लगता। जो जान बूझकर पाप करता है, वही पापी कहलाता है । अतः अज्ञान ही उत्तम है ।
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इस प्रकार प्रतिपादन करने वाले अज्ञानवादी से पूछना चाहिए कि तुम जो कहते हो सो ज्ञानपूर्वक कहते हो या अज्ञानपूर्वक कहते हो ? अगर तुम ज्ञानपूर्वक बोलते हो तो तुम्हारा मत झूठा है, क्योंकि तुम ज्ञानवादी होकर दूसरों को अज्ञानवादी बनाना चाहते हो। और यदि अज्ञानपूर्वक अपने मत का समर्थन करते हो तो कौन विवेकशील पुरुष तुम्हारा कहना मानेगा? फिर अज्ञानियों का यह भी कथन है कि हम अज्ञानवादी अज्ञानपूर्वक पाप करते हैं इसलिए हमें पाप नहीं लगता । मगर यह कहना ठीक नहीं है । अज्ञान से विष चढ़ता है या नहीं? अगर विष चढ़ता है तो अज्ञान से किए हुए पाप का फल भी भोगना पड़ेगा । सत्य तो यह है कि ज्ञानी की अपेक्षा अज्ञानी को अधिक पाप लगता है। ज्ञानी तो जानता है कि यह विष है, यदि खाऊंगा तो प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे। ऐसा सोचकर वह विष से बचता रहता है। इस प्रकार ज्ञानी पुरुष पाप को दुःखदाता जानकर पाप से बचा रहता
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मिच्छे अनंतदोसा, पयड़ा दीसन्ति न वि गुणलेसो । तहवि य तं चेव जीवा, मोहंधा निसेवंति ॥
अर्थात् मिथ्यात्व में अनन्त दोष हैं, गुण का लेश मात्र भी नहीं है, किन्तु मोह के अंधे बने हुए जीव फिर भी उसी का सेवन करते हैं ।
जैन धर्म किसी से झगडने की शिक्षा नहीं देता, वह तो सहन करने की शिक्षा देता है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपनी मूल वस्तु को सुरक्षित नहीं रखें । जिस प्रकार हम अपनी मूल्यवान और अत्यन्त प्रिय वस्तु को दूसरों से बचाए रखने के लिए पूर्ण सावधान रहते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्व रत्न को बचाने के लिए सावधान रहना चाहिए। सावधानी नहीं रखने के कारण नन्दमणिहार मिथ्यात्वी बना (ज्ञाताधर्मथांगसूत्र, १३) और आनन्दादि दस श्रमणोपासकों ने इस रत्न की रक्षा की और पूरी सावधानी बरती। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली कि “मैं अन्य तीर्थिक, देव, गुरु से परिचयादि नहीं रखूंगा तो उसका दर्शन गुण कायम रहा और वे एक भवतारी हो गए। (उपासकदशा)"
इस प्रकार जिसके हृदय में दर्शन व धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी है और वह इस गुण को छोड़ता नहीं है, तो ऐसा भव्यात्मा, पन्द्रह भव से अधिक तो कर ही नहीं सकता (भगवती ८-१०) । भगवतीसूत्र के टीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी तो टीका में लिखते हैं कि "मोक्ष का सच्चा मार्ग 'दर्शन' ही है, इसलिए ज्ञान के बजाय दर्शन के विषय में विशेष प्रयत्नशील होना चाहिए ।" उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में “तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " कहा है। तात्पर्य यह है कि कुश्रद्धान- त्याग ही पर्याप्त नहीं, किन्तु तत्वार्थ श्रद्धान होने पर ही मिथ्यात्व छूटता है और सम्यग्दृष्टि बनती है । मिथ्यात्व-त्याग के लिए तत्त्वार्थ श्रद्धान आवश्यक
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-३, रामसिंह रोड़, होटल मेरू पैलेस के पास, टोंक रोड, जयपुर-३०२००४
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