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सम्यक्त्व और उसके आगार
9 भंडारी सरदारचन्द जैन संसार में जितने भी आस्तिक दर्शन, धर्म, पंथ और समुदाय हैं, सब विश्वास की बुनियाद पर स्थिर हैं। चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र हो या व्यावहारिक क्षेत्र हो, सर्वत्र विश्वास की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इहलौकिक और पारलौकिक सब कार्य विश्वास के आधार पर चलते हैं।
विश्वास के बिना न अन्तर्जगत् की गतिविधियाँ हो सकती हैं और न बाह्य जगत् की प्रवृत्तियां ही हो सकती हैं। विश्वास के बल पर ही प्रत्येक क्षेत्र में विकास हो सकता है। __ आत्म-विश्वासी व्यक्ति ही जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। श्रद्धाहीन, विश्वासहीन व्यक्ति सदैव असफल होता है। विद्यार्थी में यदि आत्म-विश्वास नहीं है तो वह परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता। व्यापारी में यदि विश्वास की पर्याप्त मात्रा नहीं है तो वह सफल व्यवसायी नहीं हो सकता । जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, सर्वत्र श्रद्धा या विश्वास के आधार पर ही सफलता अर्जित हो सकती है।
जैन शास्त्रीय दृष्टि से यदि सम्यक्त्व की संक्षेप में व्याख्या की जाये तो कहा जा सकता है कि पदार्थों या तत्त्वों के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानकर उन पर वैसी ही सही श्रद्धा करना सम्यक्त्व कहलाता है। देव, गुरु धर्म तत्त्व के प्रति अटूट विश्वास ही सम्यक्त्व का मूल आधार है।
सम्यक्त्व जिसको सम्यग्दर्शन कहते हैं, का सामान्य रूप से अर्थ है-सच्ची श्रद्धा, सही दृष्टि, यथार्थ विश्वास, यथार्थ श्रद्धा, सही श्रद्धा, सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् दृष्टि ।
दृष्टि या श्रद्धा तो प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है। किसी न किसी प्रकार का ज्ञान भी प्रत्येक संसारी प्राणी में सामान्य तौर से किसी न किसी रूप में पाया ही जाता है। लेकिन ये सम्यक् नहीं हैं तो वास्तव में इनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। आत्मा पर आठ कर्म लगे हुए हैं । यदि ज्ञान एवं दर्शन उन आठ कर्मों को क्षय करने में सहायक नहीं है तो मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है।
भौतिक साधनों की उपलब्धि में सहायक ज्ञान या दर्शन को सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान नहीं कह सकते हैं। क्योंकि इसके विपरीत मिथ्याज्ञान तथा मिथ्यादर्शन भी इस संसार में दृष्टिगोचर होता है जो लोकोत्तर श्रेणी में कभी भी परिगणित नहीं होता। सम्यक्त्व के आगार
सम्यक्त्व का निश्चय में तो कोई आगार होता नहीं, क्योंकि वह कोई मूर्त एवं थोपा हुआ गुण-धर्म नहीं है। सम्यक्त्व तो आत्मप्रतीति है। सम्यक्त्व को जब बाह्य व्यवहार के रूप में स्वीकार किया जाता है तो उसमें आगार होता है। तब सम्यक्त्व को एक व्रत के रूप में स्वीकार किया जाता है।
व्रत अंगीकार करते समय रखी हुई छूट को आगार कहते हैं। सम्यक्त्व का व्यावहारिक रूप स्वीकार करते हुए कुछ आगार रखे जाते हैं।
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