________________
१२
१९८
जिनवाणी-विशेषाङ्क ___ "द्रव्य से द्रव्य नहीं मिलता, इसे जानने वाले को कोई कर्त्तव्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु वह कब? स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से यथावस्थित समझ आने पर स्वद्रव्य स्वरूप परिणाम से परिमित होकर अन्य द्रव्य के प्रति सर्वथा उदास होकर कृतकृत्य होने पर, कुछ कर्त्तव्य नहीं रहता, ऐसा योग्य है और ऐसा ही है ।"१२
जड़ ने चेतन्य बन्ने द्रव्य नो स्वभाव भिन्न, सुप्रतीति पणे बन्ने जन समझाय छ । स्वरूप चेतन निज जड़ छे संबंध मात्र, अथवा ते ज्ञेय पण परद्रव्य मांय छ। एवो जे अनुभव नो प्रकाश उल्लासित थयो, जड़ थी उदासी लेने आत्मवृत्ति थाय छ। कायानी विसारी माया, स्वरूपे समाया एवा
निग्रन्थ नो पंथ, भव अंत नो उपाय छे ।।१३ श्रीमद्जी स्पष्ट करते हैं कि जीव और काया पदार्थ रूप से भिन्न, परन्तु संबंध रूप से सहचारी है । जब तक उस काया से जीव को कर्म का भोग है तब तक नीरक्षीरवत् एकत्र हुए दीखते हैं, फिर भी परमार्थ से वे अलग हैं। यदि इसका स्पष्ट भान हो जाए तो सम्यक् दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। उपाय
यही सर्वक्लेश और सर्वदुःख से मुक्त होने का उपाय है। यही सत् है। सत् कोई दूर नहीं, सुगम है। परन्तु उसको प्राप्त करने का मार्ग कठिन है, क्योंकि अनादि से इस जीव ने अनित्य पदार्थ के प्रति मोहबुद्धि कर रखी है और इसी से संसार परिभ्रमण का भोग रहा करता है। आत्म-विचार में बाह्य प्रसंग और असत्संग बाधक कारण कहे हैं । इसलिए श्रीमद्जी मुमुक्षु जीवों को बोध देते हैं--
“आरम्भ-परिग्रह की अल्पता करने से असत्प्रसंग का बल घटता है, सत्संग के आश्रय से असत्संग का बल घटता है। असत्संग का बल घटने से आत्मविचार होने का अवकाश प्राप्त होता है, आत्म-विचार होने से आत्मज्ञान होता है और आत्म-ज्ञान से निज स्वभाव स्वरूप सर्वक्लेश एवं सर्वदुःख से रहित मोक्ष प्राप्त होता है। यह बात सर्वथा सत्य है । १५
आज के भौतिक युग की आपाधापी में भागमभाग में जीव ऐसा उलझा हआ है कि आत्म-विचार का समय ही नहीं है। हम नादान जीवों के लिए ही श्रीमद्जी प्रेरणा करते हैं – “सर्व विभाव से उदासीन और अत्यन्त शुद्ध निज पर्याय का सहज रूप से आत्मा सेवन करे... किसी ही जीव से इस गहन दशा का विचार हो सकता है, क्योंकि अनादि से अत्यंत अज्ञानदशा से इस जीव ने जो प्रवृत्ति की है, उस प्रवृत्ति को एकदम असत्य, असार समझकर उसकी निवृत्ति सूझे, ऐसा होना बहुत कठिन है... ज्ञानी की शरण से यह सरल होता है । ज्ञानी पुरुष के चरण में मन का स्थापित होना पहले तो कठिन पड़ता है, परन्तु वचन की अपूर्वता से, उस वचन का विचार करने से और ज्ञानी को अपूर्व दृष्टि से देखने से मन का स्थापित होना संभव है।"
ज्ञानी पुरुष के आश्रय में विरोध करने वाले पंचविषयादि दोष हैं, उन दोषों के होने के साधनों से यथाशक्ति दूर रहना, प्राप्त साधनों में भी उदासीनता रखना अथवा उन साधनों में से मंदबुद्धि को दूर कर उन्हें रोग रूप समझ कर प्रवृत्ति करना योग्य
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org