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जिनवाणी-विशेषाङ्क और जीवत्व भाव में लीन होना म् + इच्छा, अर्थात् मिच्छा (generator of will) से सावधान रहना, उसे दूर ही रखना। कितना अच्छा शब्द चुना था हमारे गणितीय सम्बक्दृष्टियों ने, 'मिच्छा' जो लोक में ढाई हजार वर्ष पूर्व प्रचलित था। म् अर्थात् जनक और इच्छा, वांछा ।
यह इच्छा ही संसार चक्र को, जन्म-मरण को यथावत् रखती है। जहाँ मांसाहार की इच्छा मात्र की, भाव किया और वहां बध हो गया। बाजार में वह मांस गया होगा. सेवक उसे खरीदकर लाया होगा, रसोइये ने उसे बनाया होगा, आदि आदि सभी प्रक्रियाओं का भागीदार वह मांसाहार की इच्छा करने वाला ही तो है। यह इच्छा संसार में हमें आपको रोके रखने में इतनी शक्तिशाली है, तो उसके इस गणित को उन गणितीय सम्यक्दृष्टियों से क्यों न समझा जाये और उसका सही-सही बोध या ज्ञान क्यों न किया जाये। बोध होते ही इच्छा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है ! ज्ञान होते ही अनन्त इच्छाओं से उत्पन्न यह अनन्त संसार विलय को प्राप्त हो जाता है। अतः उन जैनाचार्यों ने न केवल भाषा के सहारे, न केवल एक ही पक्ष ग्रहण कर अपितु गणित के सुपक्ष का आधार लेकर महान् फल एवं निर्णय निर्धारित किये और बतलाया कि एक चक्र से चलकर हम इच्छाओं के कारण दूसरे चक्र में फंस जाते हैं और यह भ्रम टूटना असंभव हो जाता है कि हमें अभी सुमार्ग नहीं मिला है।
भाषा और गणित की बैसाखी से, प्रतिपल, प्रति समय की क्रांति ही समार्ग को ला सकती है किन्तु क्रांति केवल समय, एक ही समय, वर्तमान समय को चाहती है। उसी समय में जब शृंखलाबद्ध प्रक्रिया होती है, अनादि की ग्रंथियां क्षण-क्षण में टूटती चली जाती है। शृंखलाबद्ध प्रक्रिया क्या है ? उसका भी गणित है, और इसे भरपूर गणित द्वारा उन गणितीय सम्यक्दृष्टियों ने किसी एक विशेष जाति-पांति या व्यक्ति या देश या काल के लिए निर्धारित किया है, सो बात नहीं है। वह सार्वभौमिक है, सार्वलौकिक एवं सार्वकालिक है।
दीक्षा ज्वैलर्स, ५५४, सराफा, जबलपुर-४८२ ००२ (म.प्र.)
अनुकम्पा और आस्तिक्य अनुकम्पा कृपा ज्ञेया सर्वसत्त्वेष्वनुग्रह ।
मैत्रीभावोऽथ माध्यस्थं नैःशल्यं वैरवर्जनात् ॥ अनुकम्पा का अर्थ दया है। समस्त जीवों पर अनुग्रह करना भी अनुकम्पा है । मैत्रीभाव का नाम भी अनुकम्पा है। माध्यस्थ भाव रखना या शत्रुता के त्याग कर देने से शल्य रहित हो जाना भी अनुकम्पा है।
आस्तिक्यं तत्त्वसदभावं स्वत: सिद्धे विनिश्चितिः ।
धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चास्त्यादिमतिश्चितः ।। स्वत: सिद्ध तत्वों के सद्भाव में निश्चयभाव रखना तथा धर्म, धर्म के हेतु और धर्म के फल में आत्मा की अस्ति आदि रूप बुद्धि का होना आस्तिक्य है।
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